Thursday, 23 March 2017

हिंदुत्व की परिभाषा

हिन्दू शब्द का मूल बहुत पुराना नहीं, यह नाम दिया गया था मुगलों द्वारा! सिन्धु के इस पार के सारे क्षेत्र को उन लोगों ने हिन्द कहा, और यहाँ के लोगों को हिन्दू या हिन्दी! फिर अंग्रेज इतिहासकारों ने इसे इस्तेमाल करना शुरू किया और यह शब्द भारत के मूल निवासियों  कि पहचान बन गया!

इस से पहले हिन्दू या हिंदुत्व नाम का कोई आस्तित्व नहीं था! भारत के लोग सब एक ही तरीके से रहते थे और उन्हें स्वयम को भारतवासी के अतिरिक्त किसी और नाम की आवश्यकता नहीं थी! विदेशी आक्रमणकारियों के यहाँ आकर बसने के बाद, और धर्म परिवर्तन का दौर शुरू होने के बाद, ज़रूरत पडी लोगों को उनकी जीवन-शैली के आधार पर बांटने की! 

आज जिन्हें हिन्दू कहते हैं, वे हैं असल में सनातन धर्मी! और धर्म की परिभाषा पूछें तो बहुत सीधे शब्दों में यह एक दूसरा नाम है जीवन-शैली का! वह जीवन शैली जिसमें हर प्राणी को परमात्मा का रूप माना  गया, जिसमें हर स्त्री को आदि-शक्ति का रूप कहा गया, जिसमें, जीवन का आधार परोपकार को बताया गया, जिसमें यज्ञ (दान इत्यादि) के बिना किसी भी वस्तु के भोग को पाप बताया गया, वह जीवन शैली हमारे पूर्वजों ने हमें विरासत में दी! उसका हर पहलू विज्ञान पर आधारित है, हर नियम के पीछे एक सामाजिक उत्थान छिपा है! यही है हिंदुत्व की परिभाषा!

हिंदुत्व का बहुत बड़ा आधार है सहिषुणता और सहजता।  सहिषुणता यानि कि कोई कितना भी हमें तोड़ने का प्रयास करले, हम टूटते नहीं हैं।  हम दुसरे के आघात को अपनी शक्ति बना लेते हैं।  हमारा ह्रदय त्न बड़ा है कि हम दूसरे देश के लोगों को, दूसरी जीवन-शैली के लोगों को भी प्रेम की दृष्टि से देखते हैं और उन्हें अपने ही समान परमात्मा का रूप मानते हैं।  हम उनके धर्म को भी अपने धर्म के समान सम्मान देते हैं।  क्योंकि हमारे ग्रंथों ने हमने यह नहीं सिखाया कि कोई एक रास्ता है परमात्मा तक पहुँचने का, हमें यह सिखाया है कि सभी रास्ते अंततः ईश्वर तक ही जाते हैं।  कोई राजमार्ग से जाये या पगडंडी से, पहुंचना तो सभी को वहीं है।  इसी कारण एक हिन्दू के मस्जिद और चर्च में जा कर भी प्रार्थना करने में कोई आपत्ति नहीं उठाते, उसे मंदिर जाने के समान ही धर्ममय मानते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है कि ईश्वर एक अनदेखी, अनिर्वचनीय सत्ता है, हम उसे किसी भी नाम से पुकारें कोई अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि वह नाम से नहीं भाव से जाना जाता है।  अब चाहे हम अपने ग्रंथों में  करोड़ देवी-देवताओं को पुकारें, या जीसस को या अल्लाह को, यदि हमारा भाव शुद्ध है, हम बिना किसी लाग-लपेट के, एकचित्त हो कर, उसे पुकारते हैं, तो हम उसी ईश्वर को पुकारते हैं।  स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने तो ऐसे कई प्रयोग भी कर के देखे, भिन्न भिन्न  प्रकार से ईश्वर की आराधना करी, और यही निष्कर्ष निकला कि प्रत्येक बार उन्हें उसी परमपिता परमात्मा की शरण मिली। ऐसे में तर्क-बुद्धि से यही परिणाम निकलता है कि जहां कहीं भी कोई भी सच्चे मन से ईश्वर का आराधन करता है, और परमार्थ हेतु सब कर्म करता है, वह सनातन धर्मी ही कहा जा सकता है। हमारे ग्रंथों का तो यही मानना है, और कोई इसे माने या ना माने।

एक हिन्दू के लिए पाप क्या है और पुण्य क्या, इसकी परिभाषा भी बहुत सहज है।  ऐसा कहा गया है कि एक ही कार्य  एक समय में पाप और दुसरे समय में पुण्य का रूप ले सकता है।  जो परमार्थ हेतु (प्राणी-मात्र के, समाज के या देश के उत्थान हेतु) किया गया कार्य है वह पुण्य, और जो अपने स्वार्थ हेतु दूसरे को दुःख देकर किया गया कार्य है वह पाप।  इन दो पंक्तियों में सारे धर्म का सार छिपा है। बाकी जो भी परिभाषा कही गयी हैं, वह सब सांकेतिक है, वह श्रद्धा और भाव सिखाने के तरीके मात्र हैं लेकिन यद् उन्हें केवल तन से अपनाया और मन से नहीं तो उनका कोई अर्थ नहीं।

कोई पूजा से पहले स्नान करके शुद्ध हुआ या नहीं, कोई मंदिर में सिर ढक कर बैठा या नहीं, किसी ने मूर्ती को साष्टांग प्रणाम किया या नहीं, आरती के या स्तुति के पूरे शब्द गाए या नहीं -  ईश्वर को इन सब बाहरी संकेतों से कोई सरोकार नहीं, उन्हें तो केवल शुद्ध भाव ही भाता है।  यदि कोई व्यक्ति इन सब में से कुछ भी नहीं करता लेकिन दरिद्र-नारायण की सेवा करता है, सत्य की साधना करता है, समाज में प्रेम का संचार करता है, तो वह सब से बड़ा पुण्यवान है।  और यह सब करे भी यदि कोई स्वार्थपूर्ण जावन जी रहा है, दीनों का तिरस्कार करता है, समाज में हिंसा फैलता है, और असत्य -वाणी बोलता है, तो उससे बड़ा पापी कोई नहीं।

आज देश में बहुत भाँती के लोग बसते हैं, सब अपने आप को इसका या उसका अनुयायी मानते हैं, और उन सब कारणों से बहुत भेदभाव उत्पन्न होता है।  यदि हम सांकेतिक पाप-पुण्य को छोड़ कर उनके मन के भाव के अनुसार उन्हें सम्मान दें, तो ही हमारे समाज में पुनः शांति हो सकती है।  सभी वर्गों और सभी तथाकथित धर्मों के लोगों को समझना चाहिए कि जो देश का और समाज का हित करेगा वही सच्चा मनुष्य है, और उसे ही सम्मान का अधिकार है, चाहे वह राम की पूजा करे या जीसस की, या अल्लाह की।  राष्ट्रपति कलाम को कोई हिन्दू बुरा नहीं कह सकता, क्योंकि उन्होंने सच्चे मन से देश की सेवा करी, और तथाकथित हिन्दू समुदाय के सदस्य लालू, मुलायम और केजरी, अपने स्वार्थ और देशद्रोह के कारण, बुरे ही कहलायेंगे।  इतने से ही हमें समझ जाना चाहिए कि अच्छे बुरे की पहचान उसके कर्म से होनी चाहिए न कि उसके नाम से।  अन्यथा नफरत का तो कोई अंत नहीं।  

Gitanjali Mittal













































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