Friday, 24 March 2017

माफी से नहीं भरेंगे सदियों के जख्म सतीश पेडणेकर


पोप फ्रांसिस ने पिछले दिनों बोलिविया में अपने प्रवास के दौरान उपनिवेशकाल में लातिनी अमरीका में हुए अत्याचारों में रोमन कैथोलिक चर्च की भूमिका के लिए माफी मांगी। उन्होंने कहा, 'कुछ लोगों की यह बात सही है कि पोप जब उपनिवेशवाद की बात करते हैं तो चर्च की करतूतों को नजरअंदाज कर देते हैं। लेकिन मैं बहुत खेदपूर्वक आपसे कह रहा हूं कि ईश्वर के नाम पर अमरीका के स्थानीय लोगों के खिलाफ कई गंभीर पाप किए गए। मैं विनम्रतापूर्वक माफी मांगता हूं, केवल चर्च द्वारा किए गए अपराधों के लिए ही नहीं वरन् अमरीका की कथित विजय के दौरान स्थानीय लोगों के खिलाफ किए गए अपराधों के लिए भी।' बेशक पोप की माफी देर-सबेर ही सही, अपने अपराधों का एहसास करने की दिशा में एक अच्छा कदम है। लेकिन लातिनी अमरीका के लोगों को यह माफी सुनकर कुछ ऐसा ही लगा होगा जैसा गालिब ने अपने शेर में फरमाया है-
 की मेरे कत्ल के बाद जफा से तौबा
हाय! उस जूद-पशेमां को पशीमां होना
आज जिस ईसाइयत को प्रेम और सेवा की प्रतिमूर्ति के रूप में दुनिया के सामने पेश किया जाता है उस ईसाइयत की असलियत कुछ और ही है। इतिहास गवाह है कि ईसाइयत उस साम्राज्यवाद की भुजा थी जिसने दुनियाभर में जिस तरह नरसंहार, दूसरे मतों और संस्कृतियों पर हमले किए उसकी दूसरी कोई मिसाल इतिहास में नहीं मिलती। हम भारतीयों के बीच अक्सर इस्लाम के जुल्म और अत्याचारों की चर्चा होती है, लेकिन ईसाइयत का इतिहास और भी ज्यादा काला, भीषण और विकराल है। मुसलमानों का साम्राज्यवाद केवल तीन उपमहाद्वीपों एशिया, यूरोप और अफ्रीका  में रहा मगर ईसाइयों का साम्राज्यवाद पांच महाद्वीपों में रहा। इसलिए उनके केवल लातिनी अमरीका से माफी मांगने से काम नहीं चलने वाला, उन्हें पांचों महाद्वीपों से अलग-अलग माफी मांगनी होगी। तभी उनके घावों पर मरहम लग सकता है।
ईसाइयत के इतिहास पर सरसरी नजर डालें तो यह देखना दिलचस्प होगा कि यहूदियों के साथ ईसाइयों ने कैसा बर्ताव किया, क्योंकि  ईसा यहूदी थे। ईसा ने कभी कहा था कि मुक्ति यहूदियों को ही मिलेगी, मेरा उपदेश यहूदियों के लिए ही है। मगर जब यहूदियों ने उन्हें मसीहा नहीं माना तो वही सबसे बड़े दुश्मन बन गए। उनका तिरस्कार और उत्पीड़न शुरू हुआ। ईसा को मसीहा मानने वाले ईसाइयों ने यहूदियों से प्रचंड घृणा पाल ली और उनका नरसंहार किया। ईसा ने यहूदियों का मुक्तिदूत होने का दावा किया। पर वे मृत्युदूत और यातनादूत बनकर रह गए। सारे यूरोप में ईसाइयत के फैलने के साथ यहूदी विरोध भी फैला। ज्यादातर इतिहासकारों का मानना है कि ईसाइयत के शुरुआती दिनों से ही उसमें यहूदी विरोधी भावना थी जो आने वाली शताब्दियों में और बलवती हो गई। ईसाइयों द्वारा की गई यहूदियों के खिलाफ हिंसा और हत्याओं ने आखिरकार नरसंहार का रूप लिया। हिटलर ने तो लाखों यहूदियों का नरसंहार किया। 'जीसस क्राइस्ट: एन आर्टीफाइस फॉर एग्रेशन' के लेखक सीताराम गोयल यहूदियों के नरसंहार को  सीधे ईसा से प्रेरित बताते हैं। वे लिखते हैं-'गोस्पल के ईसा ने यहूदियों की सांप, सांपों का बिल, शैतान की औलाद, मसीहाओं के हत्यारे कहकर निंदा की क्योंकि उन्होंने ईसा को मसीहा मानने से इंकार कर दिया था। बाद की ईसाई पांथिक किताबों ने  उनको ईसा के हत्यारे के तौर पर स्थायी अपराध भाव से भर दिया। यहूदियों को सारे यूरोप में सदियों तक गैर नागरिक बना दिया गया। उनको लगातार हत्याकांड का शिकार बनाया गया। लेकिन हिटलर के उदय से पहले कोई गोस्पल के संदेश को इतने सुव्यवस्थित तरीके से लागू नहीं कर पाया। न फाइनल सोल्यूशन का ब्लू प्रिंट बना पाया। संक्षेप में हिटलर के अलावा कोई भी गोस्पल के जीसस द्वारा यहूदियों के बारे में दिए गए फैसले को समझ नहीं पाया। आश्चर्य नहीं कि पश्चिमी देशों के गंभीर चिंतक गोस्पल को पहला यहूदी विरोधी मेनीफैस्टो मानते हैं।'

फ्रांसीसी लेखक और दार्शनिक वाल्टेयर ने ईसाइयत के इतिहास और चरित्र का अध्ययन करने के बाद टिप्पणी की थी-'ईसाइयत दुनिया पर थोपा गया सबसे हास्यास्पद, सबसे ज्यादा एब्सर्ड और रक्तरंजित मत है। हर सम्माननीय व्यक्ति, हर संवेदनशील व्यक्ति को  ईसाई पंथ से डरना चाहिए।' उनकी यह बात सोलह आने खरी है। ईसाइयत का सारा इतिहास रक्तरंजित दास्तान रहा है। सबसे पहला देश, जहां ईसाई पंथ राज-पंथ बना वह था रोम। ईसाइयों का स्वभाव रहा है, जैसे ही पर्याप्त शक्ति संग्रहीत होती है वे भयंकर यातनाओं में और तेजी ले आते हैं। उन्होंने बहुदेववादियों का उत्पीड़न शुरू किया। उन यहूदियों का उत्पीड़न किया जिनसे ईसाइयत उपजी। इसके अलावा उन्होंने अपने संप्रदाय से अलग संप्रदाय के ईसाइयों का भी नृशंस दमन किया। रोम में उन्होंने बहुदेववादियों के सारे उपासना स्थल नष्ट कर दिए। बाद में ईसाइयत यूनान भी पहुंची। किसी जमाने में यूनान पश्चिमी सभ्यता का सिरमौर हुआ करता था, लेकिन ईसाइयों का वर्चस्व बढ़ने के साथ उसका यह सम्मान जाता रहा। स्वामी विवेकानंद ने कहा था-'प्राचीन यूनान ईसाइयों से बहुत पहले पश्चिमी सभ्यता का पहला शिक्षक था। मगर जबसे वह ईसाइ बना उसकी सारी मनीषा और संस्कृति नष्ट हो गई।' कुछ ऐसी ही बात महर्षि अरविंद ने भी कही थी-'यूनानियों के पास ईसाइयों से  ज्यादा प्रकाश था। ईसाई तो प्रकाश के बजाय अंधेरा लाए।'
आक्रामक पंथों के साथ हमेशा ऐसा ही होता है। भारत में जिस प्रकार मंदिरों में अनेक देव मूर्तियां साथ-साथ होती हैं। उसी तरह ग्रीक देवी-देवताओं की मूर्तियां भी वहां के मंदिरों में साथ-साथ होती थीं। उसी तरह पैगन मंदिरों में और वेदियों में विविध देवमूर्तियां साथ-साथ होती थीं। न तो देवताओं में ईर्ष्या और नफरत भरी प्रतिस्पर्धा थी, न पुजारियों के बीच। लेकिन  नए पंथ की सोच में ही कुछ गड़बड़ी थी। इसलिए यूरोप में ईसाइयत का इतिहास विध्वंस गाथाओं से भरा रहा। ईसाइयत ने किस तरह यूरोप पर कब्जा किया, अनेक समाजों और संस्कृतियों के मठ-मंदिरों को नष्ट किया, विचार स्वातंत्र्य को खत्म किया इसका इतिहास रक्तरंजित और रोंगटे खडे़ कर देने वाला है। ईसाई संतों ने इसमें सबसे दुष्टतापूर्ण भूमिका निभाई। ऐसे क्रूर लोगों को वहां 'संत' कहा गया। संत मारियस ने गाउल में अनेक प्रतिमाएं जलाईं। एमिन्स के संत फरमिनस ने जहां भी मूर्तियां पाईं उन्हें नष्ट किया। संत कोलंबस और संत गाल ने सारे यूरोप महाद्वीप में हजारों मंदिरों, मठों और वहां स्थापित मूर्तियों को नष्ट किया, मंदिरों से जुड़े बगीचों को उजाड़ डाला। जर्मनी में तो उन्होंने भीषण तबाही मचाई। संत ऑगस्टीन ने इंग्लैंड में यही किया।
बहुदेवपूजकों के परशियाऔर बाल्टिक क्षेत्रों को तेरहवीं सदी में जबरन ईसाई बनाया गया। पचास साल तक चले भीषण रक्तपात और युद्ध के बाद परशिया ने समर्पण कर दिया। समर्पण की शर्त थी कि सभी नागरिक एक माह के भीतर बप्तिस्मा कराकर ईसाई बन जाएं। जो ऐसा करने से इंकार करें उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाए। जो पुरानी पैगन पद्धति जारी रखने का आग्रह करें उन्हें गुलाम बना लिया जाए।
ईसाइयों में शुरू से ही प्रवृत्ति रही है कि एक संप्रदाय दूसरे संप्रदाय वाले की जान ले लेता है। दरअसल  एक संप्रदाय का ईसाई दूसरे संप्रदाय में जाना पाप ही मानता था। उसे राज्य के विरुद्ध अपराध भी घोषित कर दिया जाता था। एक संप्रदाय के राजा कानून बनाकर भिन्न ईसाई संप्रदायों पर पाबंदी तक लगाते थे। राजा थिओडोसियस के समय तक ऐसे 100 कानून थे। तब भी उसने नए कानून बनाए। उनकी संहिता में लिखा था-हमारा आदेश है कि हमारे प्रशासन के अधीन सभी लोग केवल उस ईसाई संप्रदाय के प्रति आस्था रखेंगे जो दिव्य पीटर ने रोम वालों को सौंपा है।...जो अभिशप्त हैं, बीमार हैं केवल वे ही अलग ईसाई संप्रदाय के प्रति निष्ठा जारी रखेंगे। उन्हें पहले दैवीय अभिशाप नष्ट करेगा, साथ ही शासन भी उनका दमन करेगा। असल में यूरोप में पहले पैगन वंश के लोगों का समूल नाश किया गया। फिर अन्य ईसाई संप्रदायों के ईसाइयों को ढूंढकर जलाया गया। लाखों अन्य संप्रदायों के ईसाई सार्वजनिक उत्सवों के दौरान जलाए गए। उन्मत्त ईसाइयों ने समाजों, संस्कृतियों और कौमों का उत्पीड़न किया। इस तरह ईसाइयत ने यूरोप को अपने अधीन किया। पोप ग्रेगरी ने इंग्लैंड के बिशप ऑगस्टीन को सलाह दी कि जो भव्य मंदिर हों उनको नष्ट न  कर उन पर कब्जा करें, वहां की मूर्तियां हटा दी जाएं और वहां 'सच्चे ईश्वर' की पूजा की जाए।
फिर यूरोप के ईसाइयों  ने बाकी महाद्वीपों में जाकर यही इतिहास दोहराया। उन्होंने अमरीका और आस्ट्रेलिया जाकर वहां के स्थानीय निवासियों को असभ्य करार देकर उनका नरसंहार किया और उनकी जमीन आदि पर कब्जा कर लिया। बेनेडिक्ट चर्च के पादरी कोलंबस के पीछे अमरीका पहुंचे। उन्होंने केवल हैती में ही पौने दो लाख मूर्तियों को नष्ट कर दिया, जिनकी वहां के स्थानीय लोग पूजा करते थे। मैक्सिको के पहले पादरी जुआन द जुमरगा ने 1531 में दावा किया था कि उसने 500 से ज्यादा मंदिर नष्ट किए और 20000 से ज्यादा  मूर्तियां तोड़कर मिट्टी में मिला दीं। एक मिशनरी ने बहुत गर्व से लिखा-'उस रात खाना चार फीट ऊंची लकड़ी की मूर्ति को जलाऊ लकड़ी की तरह प्रयोग कर तैयार किया गया था और वहां स्थानीय लोग खड़े देखते रहे।'गांधीवादी चिंतक और इतिहासकार धर्मपाल के शब्दों में कहा जाए तो-'उनकी नजर में विजित को आखिरकार खत्म होना था। भौतिक रूप से न सही मगर संस्कृति और सभ्यता के रूप में आस्टे्रलिया और न्यूजीलैंड के स्थानीय निवासी जल्दी ही नेस्तोनाबूद हो गए थे। उत्तरी अमरीका में उनके पूर्ण उन्मूलन में 300-400 साल लगे। 1492 में अमरीका के स्थानीय लोगों की आबादी 11़ 2 करोड़ से 14 करोड़ के बीच थी।' अफ्रीकी महाद्वीप इस्लाम और ईसाइयत जैसे विस्तारवादी और घोर असहिष्णु मतों के हमलों को झेल रहा है जिन्होंने उसे सदियों से दबोच रखा है। इससे उनकी प्राचीन संस्कृति लगभग खत्म होती जा रही है। दोनों के बीच स्थानीय लोगों को मतांतरित करने की होड़ चल रही है। हाल ही में यह हमला और तेज हुआ है और अफ्रीकी अपने युगों पुराने मतों को खोने की कगार पर हैं। प्राच्य विद्या विशारद कोनरॉड एल्स्ट के मुताबिक अफ्रीका में 1900 में 50 प्रतिशत लोग पैगन मतों को मानते थे। अब ईसाई और मुस्लिम मिशनरियों ने उनकी संख्या को 10 प्रतिशत से कम पर पहुंचा दिया है।
   यह एक नए तरह का उत्पीड़न था। विचारों और संप्रदाय के आधार पर उत्पीड़न। 'हिस्ट्री ऑफ यूरोपियन मोरल्स' के लेखक डब्लू. ई. एच. लेकी ने इस भेद का वर्णन इस तरह किया है-'यह नया उत्पीड़न अधिक लंबे समय तक टिकने वाला व्यवस्थित, अविचलित और अडिग था। लोगों को भीषण यंत्रणा देकर भी थमता नहीं था, न पीछे हटता था। इसे उत्पीड़कों ने अपना अधिकार तो माना ही, अपना कर्तव्य भी माना। ईसाई मत की पांथिक पुस्तकों में ऐसे उत्पीड़न की भरपूर वकालत की गई है।'
ईसाइयत के प्रसार ने न केवल संस्कृतियों का विनाश किया वरन् यूरोप, अमरीका, एशिया, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया के लाखों लोगों की हत्या हुई। फ्रांसीसी दार्शनिक वॉल्टेयर                                                                                                                                                                                                                                                                    के शब्दों में कहें तो, ईसाइयत ने काल्पनिक सत्य  के लिए धरती को रक्त से नहला दिया।    अठारहवीं सदी की कई प्रतिभाएं ईसाइयत के इस इतिहास से परिचित थीं। लेकिन बाद में इस बारे में चेतना घटती गई, जबकि कई अध्ययनों से इस बारे में हमारी जानकारी में इजाफा हुआ है। पश्चिमी देश सेकुलर होने के बावजूद अपने को ईसाई मानते हैं। इसलिए सार्वजनिक जीवन और शिक्षा व्यवस्था के जरिये सदियों तक ईसा के नाम पर मानवता के खिलाफ हुए अपराधों को छिपाते रहे। भारत में तो इस काले अध्याय को पूरी तरह से पोंछ दिया गया है, उस पर कभी चर्चा नहीं की जाती। ईसाइयत को प्रेम और सेवा के मत के रूप में प्रचारित किया जाता है। लेकिन उसमें इस बात की चर्चा नहीं की जाती कि इसके लिए कितने लोगों की बलि चढ़ाई गई। जैसा स्वामी विवेकानंद ने कहा था-'तमाम डींगों के बावजूद आपकी ईसाइयत तलवार के बिना कहां सफल हुई? मुझे दुनिया का एक ऐसा देश बताइए। मैं कह रहा हूं, पूरी ईसाइयत के इतिहास में एक मिसाल बताइये, मैं दो नहीं चाहता। मुझे पता है आपके पूर्वज कैसे कन्वर्ट हुए। उनके सामने दो ही विकल्प थे, मत बदलें या मारे जाएं। ये डींगंे मारकर आप मुसलमानों से बेहतर क्या कर सकते हैं? आप शायद यह कहना चाहते हैं कि हम अपनी तरह के अकेले हैं क्योंकि हम दूसरों को मार डालते हैं?'
भारत भी ईसाइयों की विनाशलीला का शिकार हुआ है। पुर्तगालियों की हिंसा जगजाहिर थी तो अंग्रेजों की हिंसा सूक्ष्म थी, चुपचाप जड़ें खोदने वाली थी। एक ईसाई इतिहासकार ने बताया है कि पुर्तगालियों ने अपने कब्जे के भारत में क्या किया। टी.आर. डिसूजा के मुताबिक, 1540 के बाद गोवा में सभी हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों को तोड़ दिया गया था या गायब कर दिया गया था। सभी मंदिर ध्वस्त कर दिए गए थे और उनकी जमीन और निर्माण सामग्रियों को नए चर्च या चैपल बनाने के लिए इस्तेमाल किया गया था। कई शासकीय और चर्च के आदेशों में हिन्दू पुरोहितों के पुर्तगाली क्षेत्र में आने पर रोक लगा दी गई थी। विवाह सहित सभी हिन्दू कर्मकांडों पर पाबंदी थी। हिन्दुओं के अनाथ बच्चों को पालने का दायित्व राज्य ने अपने ऊपर ले लिया था ताकि उनकी परवरिश एक ईसाई की तरह की जा सके। कई तरह के रोजगारों में हिन्दुओं पर पाबंदी लगा दी गई थी। जबकि ईसाइयों को नौैकरियों मे प्राथमिकता दी जाती थी। राज्य द्वारा यह सुनिश्चित किया गया था कि जो ईसाई बने हैं उन्हें कोई परेशान न करे। दूसरी तरफ हिन्दुओं को चर्च में उनके धर्म की आलोचना करने वाले वक्तव्य सुनने के लिए आना पड़ता था। ईसाई मिशनरियां गोवा में सामूहिक कन्वर्जन करती थीं। इसके लिए सेंट पाल के कन्वर्जन भोज का आयोजन किया जाता था। उसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को लाने के लिए जेसुइट हिन्दू बस्तियों में अपने नीग्रो गुलामों के साथ जाते थे। इन नीग्रो लोगों का इस्तेमाल हिन्दुओं को पकड़ने के लिए किया जाता था। ये नीग्रो भागते हिन्दुओं को पकड़कर उनके मुंह पर गाय का मांस छुआ देते थे। इससे वे हिन्दू लोगों के बीच अछूत बन जाते थे। तब उनके पास ईसाई मत में कन्वर्ट होने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता था। इतिहासकार ईश्वर शरण ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है-'संत जेवियर के सामने औरंगजेब का मंदिर विध्वंस और रक्तपात कुछ भी नहीं था। अंग्रेज शासन के बारे में नोबल पुरस्कार विजेता वी.एस. नायपाल की यह टिप्पणी ही काफी है-'इस देश में इस्लामी शासन उतना ही विनाशकारी था जितना उसके बाद आया ईसाई शासन। ईसाइयों ने एक सबसे समृद्ध देश में बड़े पैमाने पर गरीबी पैदा की। मुस्लिमों ने दुनिया की सबसे सृजनात्मक संस्कृति को एक आतंकित सभ्यता बना दिया।'

पोप ने अब माफी मांगनी शुरू की है तो केवल लातिनी अमरीका से माफी मांगने भर से काम नहीं चलेगा। उन्हें कई देशों, समाजों, कई मतों और स्वयं ईसाइयत के विभिन्न संप्रदायों से माफी मांगनी पड़ेगी। उन्हें यहूदियों, बहुदेववादियों, अन्य संप्रदाय के ईसाइयों और हिन्दुओं से माफी मांगनी होगी। उन्हें माफी मांगनी पड़ेगी उन लाखों महिलाओं से जिन्हें यूरोप में चुडै़ल कहकर जला दिया गया। उन्हें माफी मांगनी होगी उन लाखों ईसाइयों से जिन्हें मत से विरत होने के कारण यातनाघरों में यातनाएं दी गईं। गैलीलियो जैसे वैज्ञानिकों से प्रताडि़त किए जाने के लिए माफी मांगनी होगी। पोप माफी मांग भी लेंगे, लेकिन क्या ये प्रताडि़त लोग उनकी माफी कबूल करेंगे?
आखिर माफी मांगने से इतिहास तो नहीं बदलता। समय के चक्र को पीछे नहीं चलाया जा सकता। फिर माफी मांगना नाटक और ईसाइयत की छवि सुधारने की कोशिश के अलावा और क्या है? असली माफी तो तब होगी जब ईसाइयत अपना असहिष्णु और विस्तारवादी चरित्र बदले। शायद यह कर पाना पोप के वश की बात नहीं। पोप फ्रांसिस भले कितने ही प्रगतिशील होने का दावा क्यों न करें, ईसाइयत के मूल चरित्र को वे कैसे बदल पाएंगे? कहते हैं, रस्सी जल जाती है पर ऐंठन नहीं जाती।  इस्लाम और ईसाइयत दोनों ही असहिष्णुता रूपी सिक्के के दो पहलू हैं। उनकी असहिष्णुता को देखकर कई बार लगता है महात्मा गांधी द्वारा बार-बार प्रचारित की जाने वाली यह बात सबसे खतरनाक थी कि सभी मत समान हैं या एक है। कैनबरा में जन्मे हिन्दू स्वामी अक्षरानंद के शब्दों में कहा जाए तो, 'यह बहुत मूर्खतापूर्ण और खतरनाक बात प्रचारित की जा रही है कि सभी मत समान या एक ही हैं। हम हिन्दू, ईसा और अल्लाह दोनों की शक्तियों से प्रताडि़त हैं। हिन्दू और अन्य मतों को समान और एक नहीं मान सकते।'



Thursday, 23 March 2017

बिंदास बोल : दिल्ली में एक और कैराना? दिल्ली का घड़ौली बन रहा है कैराना?

http://www.sudarshannews.com/category/bindas-bol/--384




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हम है मुसलमान

मुंबई के मलाड मुस्लिम बहुल इलाके में 1हिन्दू वृद्ध विधवा महिला सखु किरनसिंह बरसो से अकेले रहती थी। शुक्रवार को उसका निधन अपने घर में हो गया। आस पडोस में मुस्लिम समाज के लोग ही बड़ी संख्या में रहते हैं। उसके परिवार में कोई नहीं था। जब इलाके के मुस्लिम नोजवानो को पता चला तो, पूरे मोहल्ले के लोगो ने हिंदू परंपरानुसार अंतिम संस्कार में लगने वाली सारी सामग्री का इन्तजाम किया। इलाके के मुस्लिम नोजवानो ने उन्हें कंधा देकर सांप्रदायिक सौहाद्र की मिसाल कायम की। लोगो ने नम आँखों से ओशिवारा शमशान घाट में उसका अंतिम संस्कार किया।

ऐसा है मेरा भारत

इस्लामी आतंकवाद

अपने को 'मुसलमान' कहने वाले चरमपंथियों द्वारा किये गये आतंक को इस्लामी आतंकवाद कहते हैं। ये तथाकथित मुसलमान भांति-भांति के राजनीतिक तथा/या मजहबी उद्देश्यों की पूर्ति के लिये आतंक फैलाते हैं।

इस्लामी आतंकवाद मध्य पूर्व, अफ्रीका, यूरोप, दक्षिणपूर्व एशिया, भारत एवं अमेरिका में बहुत दिनों से मौजूद है। आतंकी संगठनों में ओसामा बिन लादेन द्वारा स्थापित अल कायदा नामक सैनिक संगठन कुख्यात है।

इन्हें भी देखें संपादित करें


२००१ से २०१४ के बीच इस्लामी आतंकवाद से प्रभावित क्षेत्र
जेहाद
क्रूसेड
अल कायदा
ओसामा बिन लादेन
तालिबान
आईएसआईएस
हिजबुल्लाह
जैश-ए-मोहम्म्द

मुसलमानो से दस सवाल इनको सुनते ही हर मुसलमान तुरन्त भाग जाता है

यह एक कटु सत्य है कि आज भारतीय महाद्वीप में जितने भी मुसलमान हैं, उनके पूर्वज कभी हिन्दू थे, जिनको मुस्लिम बादशाहों ने जबरन मुसलमान बना दिया था। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि विदेशी पैसों के बल पर इस्लाम के एजेंट ऐसे हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन कराने में लगे रहते हैं, जो इस्लाम की असलियत से अनभिज्ञ हैं, या जिनको हिन्दू धर्म का आधा अधूरा ज्ञान होता है, और दुर्भाग्य से ऐसे हिन्दू युवक, युवतियां सेकुलर विचार वाले होते हैं, तो इस्लाम के प्रचारक आसानी से उनको इस्लाम जाल में फसा लेते हैं, इसलिए इस्लाम के चक्कर में फसने से बचने का एक ही उपाय है, कि इस्लाम के एजेंटों से तर्कपूर्ण सवाल किये जाएँ। क्योंकि इस्लाम सिर्फ ईमान लाने पर ही जोर देता है, और अगर कोई इस्लाम के दलालों से सवाल करता है, तो यातो वह भड़क जाते हैं, या लड़ने पर उतारू हो जाते हैं।

अक्सर देखा गया है कि कुछ उत्साही हिन्दू इस्लाम के समर्थकों के साथ शाश्त्रार्थ किया करते हैं, इसलिए उनकी सहायता के लिए दस ऐसे सवाल दिए जा रहे हैं, जिनका सटीक, प्रमाण सहित और तर्कपूर्ण जवाब कोई मुल्ला मौलवी नहीं दे सकता।

1. मुसलमानों का दावा है कि कुरान अल्लाह की किताब है, लेकिन कुरान में बच्चों की खतना करने का हुक्म नहीं है, फिर भी मुसलमान खतना क्यों कराते है? क्या अल्लाह में इतनी भी शक्ति नहीं है कि मुसलमानों के खतना वाले बच्चे ही पैदा कर सके? और कुरान के विरद्ध काम करने से मुसलमानों को काफ़िर क्यों नहीं माना जाए?

2. मुसलमान मानते हैं कि अल्लाह ने फ़रिश्ते के हाथो कुरआन की पहली सूरा लिखित रूप में मुहम्मद को दी थी, लेकिन अनपढ़ होने से वह उसे नहीं पढ़ सके, इसके अलावा मुसलमान यह भी दावा करते हैं कि विश्व में कुरान एकमात्र ऐसी किताब है जो पूर्णतयः सुरक्षित है, तो मुसलमान कुरान की वह सूरा पेश क्यों नहीं कर देते जो अल्लाह ने लिख कर भेजी थी, इस से तुरंत पता हो जायेगा कि वह कागज कहाँ बना था? और अल्लाह की राईटिंग कैसी थी? वर्ना हम क्यों नहीं माने कि जैसे अल्लाह फर्जी है वैसे ही कुरान भी फर्जी है।

3. इस्लाम के मुताबिक यदि 3 दिन/माह का बच्चा मर जाये तो उसको कयामत के दिन क्या मिलेगा – जन्नत या जहन्नुम ? और किस आधार पर??

4. मरने के बाद जन्नत में पुरुष को 72 हूरी (अप्सराए) मिलेगी…तो स्त्री को क्या मिलेगा…… 72 हूरा (पुरुष वेश्या) ??और अगर कोई बच्चा पैदा होते ही मर जाये तो क्या उसे भी हूरें मिलेंगी? और वह हूरों का क्या करेगा?

5. यदि मुसलमानों की तरह ईसाई, यहूदी और हिन्दू मिलकर मुसलमानों के विरुद्ध जिहाद करें, तो क्या मुसलमान इसे धार्मिक कार्य मानेंगे या अपराध? और क्यों?

6. यदि कोई गैर मुस्लिम (काफ़िर) यदि अच्छे गुणों वाला हो तो भी, क्या अल्लाह उसको जहन्नुम की आग में झोक देगा….? और क्यों ? और, अगर ऐसा करेगा तो…. क्या ये अन्याय नहीं हुआ??

7. कुरान के अनुसार मुहम्मद सशरीर जन्नत गए थे, और वहां अल्लाह से बात भी की थी, लेकिन जब अल्लाह निराकार है, और उसकी कोई इमेज (छवि) नहीं है तो मुहम्मद ने अल्लाह को कैसे देखा?? और कैसे पहिचाना कि यह अल्लाह है, या शैतान है?

8. मुसलमानों का दावा है कि जन्नत जाते समय मुहम्मद ने येरूसलम की बैतूल मुक़द्दस नामकी मस्जिद में नमाज पढ़ी थी, लेकिन वह मुहम्मद के जन्म से पहले ही रोमन लोगों ने नष्ट कर दी थी। मुहम्मद के समय उसका नामो निशान नहीं था, तो मुहम्मद ने उसमे नमाज कैसे पढ़ी थी? हम मुहम्मद को झूठा क्यों नहीं कहें?

9. अल्लाह ने अनपढ़ मुहम्मद में ऐसी कौनसी विशेषता देखी जो उनको अपना रसूल नियुक्त कर दिया, क्या उस समय पूरे अरब में एकभी ऐसा पढ़ा लिखा व्यक्ति नहीं था, जिसे अल्लाह रसूल बना देता, और जब अल्लाह सचमुच सर्वशक्तिमान है, तो अल्लाह मुहम्मद को 63 साल में भी अरबी लिखने या पढने की बुद्धि क्यों नहीं दे पाया।

10. जो व्यक्ति अपने जिहादियों की गैंग बना कर जगह जगह लूट करवाता हो, और लूट के माल से बाकायदा अपने लिए पाँचवाँ हिस्सा (20 %) रख लेता हो, उसे उसे अल्लाह का रसूल कहने की जगह लुटरों का सरदार क्यों न कहें ?

इस्लाम से बेखबर गाँधी

विजय कुमार सिंघल 'अंजान' in खट्ठा-मीठा | देश-दुनिया
 
गाँधी न केवल इस्लाम के इतिहास को नहीं जानते थे, बल्कि वे इस्लाम को भी सही तरह से नहीं जानते थे. यदि उन्होंने कभी कुरआन को पढ़ने का कष्ट किया होता, तो उन्हें पता चलता की इस्लाम चाहे कुछ भी हो पर शांति का धर्म तो कदापि नहीं है. दिल्ली के श्री विशन स्वरुप गोयल ने एक पुस्तिका लिखी थी- “काश! गाँधी ने कुरआन पढ़ी होती, तो….” इस पुस्तिका में उन्होंने लिखा है की यदि गाँधी ने कुरान को पढ़ा होता, तो इस्लाम के बारे में उनके विचार पूरी तरह भिन्न होते. इस पुस्तिका पर दिल्ली उच्च न्यायालय में केस भी चला था, पर न्यायाधीश ने पुस्तिका को आपत्तिजनक नहीं पाया.
इस पुस्तिका में कुरान की एक-दो नहीं बल्कि २४ ऐसी आयतों की सूची दी गयी है, जिनमें गैर-मुसलमानों के प्रति घृणा करने और उन पर सभी संभव अत्याचार करने का आदेश दिया गया है. उनमें कहा गया है कि काफिरों को दोस्त मत बनाओ, उन्हें दुश्मन मानो, उनको जहाँ भी पाओ मारो और सताओ, और तब तक सताते रहो जब तक वे तोबा करने यानी मुसलमान बनने को तैयार न हो जाएँ. सलमान रुश्दी ने इन्हीं आयतों के आधार पर अपना उपन्यास “सैटनिक वर्सेज” लिखा है, जिसको भारत की सेकुलर सरकार ने  बिना पढ़े ही प्रतिबंधित कर दिया है.
कई इस्लामी विद्वान कुरान में इन आयतों के होने से तो इनकार नहीं करते, लेकिन ये कहते हैं कि इनका सही अर्थ नहीं किया गया है और इनको मूल अरबी में समझा जाना चाहिए. परन्तु जिन लोगों ने कुरान को मूल अरबी में पढ़ा है, जैसे डा. अली सिना,  उनका कहना है कि मूल अरबी में इनका अर्थ कहीं अधिक भयानक है. अन्य भाषाओँ में अनुवाद करते समय तो इनका अर्थ थोड़ा उदार कर दिया जाता है.
इन आयतों में “काफ़िर” का सीधा अर्थ है- “गैर-मुसलमान.” कुरआन के अनुसार कुरआन और मुहम्मद पर ईमान न लाना ही “कुफ्र” है और ऐसा करने वाले “काफ़िर” हैं. इसलिए वास्तव में कुरआन सभी गैर-मुसलमानों को काफ़िर मानती है. खिलाफत आन्दोलन में गाँधी के अभिन्न सहयोगी मौलाना मुहम्मद अली ने एक बार नहीं बल्कि दो बार साफ-साफ कहा था कि उनके लिए पापी से पापी मुसलमान भी गाँधी से बेहतर है, क्योंकि वह मुसलमान है (और गाँधी काफ़िर है). क्या इसके बाद भी कुछ कहने को बाकी रह जाता है?
हमारा दुर्भाग्य है कि इसके बाद भी गाँधी की आँखें नहीं खुली और वे अपनी आखिरी साँस तक इस्लाम को शांति और भाईचारे का धर्म मानते रहे. गाँधी की इस मूर्खता की भयंकर कीमत हमारे प्यारे देश को चुकानी पड़ी,  जैसा कि हम आगे देखेंगे.
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS)

भारत का एक दक्षिणपंथी, हिन्दू राष्ट्रवादी, अर्धसैनिक, स्वयंसेवक संगठन
यह लेख भारत के एक हिंदू संगठन आर एस एस के बारे में है। अन्य प्रयोग हेतु आर एस एस देखें।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ध्वज
संक्षेपाक्षर आर० एस० एस०
स्थापना 27 सितम्बर 1925; 91 वर्ष पहले
विजयदशमी १९२५
संस्थापक डॉ॰ केशव बलिराम हेडगेवार
प्रकार दक्षिणपंथी स्वयंसेवक,[1] अर्धसैनिक[2][3][4][5][6]
वैधानिक स्थिति सक्रिय
उद्देश्य हिन्दू राष्ट्रवाद की वकालत करना[7]
मुख्यालय नागपुर, महाराष्ट्र, भारत
निर्देशांक 21°02′N 79°10′E / 21.04°N 79.16°Eनिर्देशांक: 21°02′N 79°10′E / 21.04°N 79.16°E
सेवाकृत क्षेत्र
भारत
विधि समूह चर्चा, बैठकों और अभ्यास के माध्यम से शारीरिक और मानसिक प्रशिक्षण
सदस्यता
५-६ दशलक्ष[8][9][10]
५६८५९ शाखाएँ (२०१६)[11]
आधिकारिक भाषा
हिन्दी
महासचिव
सुरेश 'भैयाजी' जोशी
सरसंघचालक
प.पू. मोहन जी भागवत
सम्बन्धन संघ परिवार
ध्येय "मातृभूमि के लिए नि:स्वार्थ सेवा"
जालस्थल rss.org
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, RSS के रूप में संक्षेपाक्षरित, भारत का एक दक्षिणपंथी,[1] हिन्दू राष्ट्रवादी,[5] अर्धसैनिक,[4] स्वयंसेवक संगठन हैं, जो भारत के सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी का व्यापक रूप से पैतृक संगठन माना जाता हैं।[12] यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अपेक्षा संघ या आर.एस.एस. के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। बीबीसी के अनुसार संघ विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संस्थान है।[कृपया उद्धरण जोड़ें]

सबसे पहले ५० वर्ष बाद १९७५ में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो तत्कालीन जनसंघ पर भी संघ के साथ प्रतिबंध लगा दिया गया। आपातकाल हटने के बाद जनसंघ का विलय जनता पार्टी में हुआ और केन्द्र में मोरारजी देसाई के प्रधानमन्त्रित्व में मिलीजुली सरकार बनी। १९७५ के बाद से धीरे-धीरे इस संगठन का राजनैतिक महत्व बढ़ता गया और इसकी परिणति भाजपा जैसे राजनैतिक दल के रूप में हुई जिसे आमतौर पर संघ की राजनैतिक शाखा के रूप में देखा जाता है। संघ की स्थापना के ७५ वर्ष बाद सन् २००० में प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एन०डी०ए० की मिलीजुली सरकार भारत की केन्द्रीय सत्ता पर आसीन हुई।

अनुक्रम

इतिहास

संस्थापना

इसकी शुरुआत सन् १९२५ में विजयादशमी के दिन डॉ॰ केशव हेडगेवार द्वारा की गयी थी।

भारत के राष्ट्रीय ध्वज का विरोध

शुरुआत में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में तिरंगा को स्वीकार नहीं किया। संघ ने, अपने मुखपत्र "ऑर्गनाइज़र" के १७ जुलाई १९४७ दिनांक के "राष्ट्रीय ध्वज" शीर्षक वाले संपादकीय में, "भगवा ध्वज" को राष्ट्रीय ध्वज स्वीकार करने की मांग की।[13]

संरचना


संघ के संस्थापक डॉ॰ केशवराव बलिरामराव हेडगेवार
संघ में संगठनात्मक रूप से सबसे ऊपर सरसंघ चालक का स्थान होता है जो पूरे संघ का दिशा-निर्देशन करते हैं। सरसंघचालक की नियुक्ति मनोनयन द्वारा होती है। प्रत्येक सरसंघचालक अपने उत्तराधिकारी की घोषणा करता है। संघ के वर्तमान सरसंघचालक श्री मोहन भागवत हैं। संघ के ज्यादातर कार्यों का निष्पादन शाखा के माध्यम से ही होता है, जिसमें सार्वजनिक स्थानों पर सुबह या शाम के समय एक घंटे के लिये स्वयंसेवकों का परस्पर मिलन होता है। वर्तमान में पूरे भारत में संघ की लगभग पचास हजार से ज्यादा शाखा लगती हैं। वस्तुत: शाखा ही तो संघ की बुनियाद है जिसके ऊपर आज यह इतना विशाल संगठन खड़ा हुआ है। शाखा की सामान्य गतिविधियों में खेल, योग, वंदना और भारत एवं विश्व के सांस्कृतिक पहलुओं पर बौद्धिक चर्चा-परिचर्चा शामिल है।

संघ की रचनात्मक व्यवस्था इस प्रकार है:

केंद्र
क्षेत्र
प्रान्त
विभाग
जिला
तालुका
नगर
मण्डल
शाखा
सरसंघचालक

डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार उपाख्य डॉक्टरजी (१९२५ - १९४०)
माधव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य गुरूजी (१९४० - १९७३)
मधुकर दत्तात्रय देवरस उपाख्य बालासाहेब देवरस (१९७३ - १९९३)
प्रोफ़ेसर राजेंद्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया (१९९३ - २०००)
कृपाहल्ली सीतारमैया सुदर्शन उपाख्य सुदर्शनजी (२००० - २००९)
डॉ॰ मोहनराव मधुकरराव भागवत (२००९ -)

शाखा

शाखा किसी मैदान या खुली जगह पर एक घंटे की लगती है। शाखा में व्यायाम, खेल, सूर्य नमस्कार, समता (परेड), गीत और प्रार्थना होती है। सामान्यतः शाखा प्रतिदिन एक घंटे की ही लगती है। शाखाएँ निम्न प्रकार की होती हैं:

प्रभात शाखा: सुबह लगने वाली शाखा को "प्रभात शाखा" कहते है।
सायं शाखा: शाम को लगने वाली शाखा को "सायं शाखा" कहते है।
रात्रि शाखा: रात्रि को लगने वाली शाखा को "रात्रि शाखा" कहते है।
मिलन: सप्ताह में एक या दो बार लगने वाली शाखा को "मिलन" कहते है।
संघ-मण्डली: महीने में एक या दो बार लगने वाली शाखा को "संघ-मण्डली" कहते है।
पूरे भारत में अनुमानित रूप से ५०,००० शाखा लगती हैं। विश्व के अन्य देशों में भी शाखाओं का कार्य चलता है, पर यह कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम से नहीं चलता। कहीं पर "भारतीय स्वयंसेवक संघ" तो कहीं "हिन्दू स्वयंसेवक संघ" के माध्यम से चलता है।
शाखा में "कार्यवाह" का पद सबसे बड़ा होता है। उसके बाद शाखाओं का दैनिक कार्य सुचारू रूप से चलने के लिए "मुख्य शिक्षक" का पद होता है। शाखा में बौद्धिक व शारीरिक क्रियाओं के साथ स्वयंसेवकों का पूर्ण विकास किया जाता है।
जो भी सदस्य शाखा में स्वयं की इच्छा से आता है, वह "स्वयंसेवक" कहलाता हैं।

संघ परिवार भी देखें

अनेक संगठन हैं जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरित हैं और स्वयं को संघ परिवार के सदस्य बताते हैं।[14] अधिकांश मामलों में, इन संगठनों के शुरूआती वर्षों में इनके प्रारम्भ और प्रबन्धन हेतु प्रचारकों (संघ के पूर्णकालिक स्वयंसेवक) को नियुक्त किया जाता था।

संघ दुनिया के लगभग 80 से अधिक देशो में कार्यरत है। संघ के लगभग 50 से ज्यादा संगठन राष्ट्रीय ओर अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है ओर लगभग 200 से अधिक संघठन क्षेत्रीय प्रभाव रखते हैं। जिसमे कुछ प्रमुख संगठन है जो संघ की विचारधारा को आधार मानकर राष्ट्र और सामाज के बीच सक्रिय है। जिनमे कुछ राष्ट्रवादी, सामाजिक, राजनैतिक, युवा वर्गों के बीच में कार्य करने वाले, शिक्षा के क्षेत्र में, सेवा के क्षेत्र में, सुरक्षा के क्षेत्र में, धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में, संतो के बीच में, विदेशो में, अन्य कई क्षेत्रों में संघ परिवार के संघठन सक्रिय रहते हैं।

सम्बद्ध संगठनों में कुछ प्रमुख संगठन ये हैं -[15]

भारतीय जनता पार्टी (भा० ज० पा०)[16]
भारतीय किसान संघ[16]
भारतीय मजदूर संघ[16]
सेवा भारती
राष्ट्र सेविका समिति[16]
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद[16]
शिक्षा भारती[16]
विश्व हिन्दू परिषद[16]
हिन्दू स्वयंसेवक संघ
स्वदेशी जागरण मंच, [17]
सरस्वती शिशु मन्दिर
विद्या भारती
वनवासी कल्याण आश्रम
मुस्लिम राष्ट्रीय मंच
बजरंग दल
अनुसूचित जाति-जमाती आरक्षण बचाओ परिषद
लघु उद्योग भारती[18][19]
भारतीय विचार केन्द्र
विश्व संवाद केन्द्र
राष्ट्रीय सिख संगत[20]
विवेकानन्द केन्द्र

संघ वर्ग


१९३९ के राष्ट्रीय अधिवेशन के समय का फोटो
ये वर्ग बौद्धिक और शारीरिक रूप से स्वयंसेवकों को संघ की जानकारी तो देते ही हैं साथ-साथ समाज, राष्ट्र और धर्म की शिक्षा भी देते हैं। ये निम्न प्रकार के होते हैं:

दीपावली वर्ग - ये वर्ग तीन दिनों का होता है। ये वर्ग तालुका या नगर स्तर पर आयोजित किया जाता है। ये हर साल दीपावली के आस पास आयोजित होता है।
शीत शिविर या (हेमंत शिविर) - ये वर्ग तीन दिनों का होता है, जो जिला या विभाग स्तर पर आयोजित किया जाता है। ये हर साल दिसंबर में आयोजित होता है।
निवासी वर्ग - ये वर्ग शाम से सुबह तक होता है। ये वर्ग हर महीने होता है। ये वर्ग शाखा, नगर या तालुका द्वारा आयोजित होता है।
संघ शिक्षा वर्ग - प्राथमिक वर्ग, प्रथम वर्ष, द्वितीय वर्ष और तृतीय वर्ष - कुल चार प्रकार के संघ शिक्षा वर्ग होते हैं। "प्राथमिक वर्ग" एक सप्ताह का होता है, "प्रथम" और "द्वितीय वर्ग" २०-२० दिन के होते हैं, जबकि "तृतीय वर्ग" 25 दिनों का होता है। "प्राथमिक वर्ग" का आयोजन सामान्यतः जिला करता है, "प्रथम संघ शिक्षा वर्ग" का आयोजन सामान्यत: प्रान्त करता है, "द्वितीय संघ शिक्षा वर्ग" का आयोजन सामान्यत: क्षेत्र करता है। परन्तु "तृतीय संघ शिक्षा वर्ग" हर साल नागपुर में ही होता है।
बौद्धिक वर्ग - ये वर्ग हर महीने, दो महीने या तीन महीने में एक बार होता है। ये वर्ग सामान्यत: नगर या तालुका आयोजित करता है।
शारीरिक वर्ग - ये वर्ग हर महीने, दो महीने या तीन महीने में एक बार होता है। ये वर्ग सामान्यत: नगर या तालुका आयोजित करता है।

सामाजिक सेवा और सुधार

हिन्दू धर्म में सामाजिक समानता के लिये संघ ने दलितों व पिछड़े वर्गों को मन्दिर में पुजारी पद के प्रशिक्षण का पक्ष लिया है। उनके अनुसार सामाजिक वर्गीकरण ही हिन्दू मूल्यों के हनन का कारण है।[21]

महात्मा गान्धी ने १९३४ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविर की यात्रा के दौरान वहाँ पूर्ण अनुशासन देखा और छुआछूत की अनुपस्थिति पायी। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से पूछताछ की और जाना कि वहाँ लोग एक साथ रह रहे हैं तथा एक साथ भोजन कर रहे हैं।[22]

राहत और पुनर्वास


सुनामी के उपरान्त सहायता कार्य में जुटे स्वयंसेवक
राहत और पुर्नवास संघ कि पुरानी परंपरा रही है। संघ ने १९७१ के उड़ीसा चक्रवात और १९७७ के आंध्र प्रदेश चक्रवात में रहत कार्यों में महती भूमिका निभाई है।[23]

संघ से जुडी सेवा भारती ने जम्मू कश्मीर से आतंकवाद से परेशान ५७ अनाथ बच्चों को गोद लिया हे जिनमे ३८ मुस्लिम और १९ हिंदू है।

आलोचनाएँ और आरोप

महात्मा गाँधी की १९४८ में संघ के पूर्व सदस्य नाथूराम गोडसे ने उनकी हत्या कर दी थी जिसके बाद संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। गोडसे संघ और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक भूतपूर्व स्वयंसेवक थे। बाद में एक जाँच समिति की रिपोर्ट आ जाने के बाद संघ को इस आरोप से बरी किया और प्रतिबंध समाप्त कर दिया गया।

संघ के आलोचकों द्वारा संघ को एक अतिवादी दक्षिणपंथी संगठन बताया जाता रहा है एवं हिंदूवादी और फ़ासीवादी संगठन के तौर पर संघ की आलोचना भी की जाती रही है। जबकि संघ के स्वयंसेवकों का यह कहना है कि सरकार एवं देश की अधिकांश पार्टियाँ अल्पसंख्यक तुष्टीकरण में लिप्त रहती हैं। विवादास्पद शाहबानो प्रकरण एवं हज-यात्रा में दी जानेवाली सब्सिडी इत्यादि की सरकारी नीति इसके प्रमाण हैं।

संघ का यह मानना है कि ऐतिहासिक रूप से हिंदू स्वदेश में हमेशा से ही उपेक्षित और उत्पीड़ित रहे हैं और वह सिर्फ़ हिंदुओं के जायज अधिकारों की ही बात करता है जबकि उसके विपरीत उसके आलोचकों का यह आरोप है कि ऐसे विचारों के प्रचार से भारत की धर्मनिरपेक्ष बुनियाद कमज़ोर होती है। संघ की इस बारे में मान्यता है कि हिन्दुत्व एक जीवन पद्धति का नाम है, किसी विशेष पूजा पद्धति को मानने वालों को हिन्दू कहते हों ऐसा नहीं है। हर वह व्यक्ति जो भारत को अपनी जन्म-भूमि मानता है, मातृ-भूमि व पितृ-भूमि मानता है (अर्थात्‌ जहाँ उसके पूर्वज रहते आये हैं) तथा उसे पुण्य भूमि भी मानता है (अर्थात्‌ जहां उसके देवी देवताओं का वास है); हिन्दू है। संघ की यह भी मान्यता है कि भारत यदि धर्मनिरपेक्ष है तो इसका कारण भी केवल यह है कि यहां हिन्दू बहुमत में हैं। इस क्रम में सबसे विवादास्पद और चर्चित मामला अयोध्या विवाद रहा है जिसमें बाबर द्वारा सोलहवीं सदी में निर्मित एक बाबरी मसजिद के स्थान पर राम मंदिर का निर्माण करना है।

उपलब्धियाँ

संघ की उपस्थिति भारतीय समाज के हर क्षेत्र में महसूस की जा सकती है जिसकी शुरुआत सन १९२५ से होती है। उदाहरण के तौर पर सन १९६२ के भारत-चीन युद्ध में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू संघ की भूमिका से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने संघ को सन १९६३ के गणतंत्र दिवस की परेड में सम्मिलित होने का निमन्त्रण दिया। सिर्फ़ दो दिनों की पूर्व सूचना पर तीन हजार से भी ज्यादा स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में वहाँ उपस्थित हो गये।

संघ की प्रार्थना


प्रार्थना की मुद्रा में स्वयंसेवक
मुख्य लेख : नमस्ते सदा वत्सले
संघ की प्रार्थना संस्कृत में है। प्रार्थना की आखरी पंक्ति हिंदी में है।
लड़कियों/स्त्रियों की शाखा राष्ट्र सेविका समिति और विदेशों में लगने वाली हिन्दू स्वयंसेवक संघ की प्रार्थना अलग है। संघ की शाखा या अन्य कार्यक्रमों में इस प्रार्थना को अनिवार्यत: गाया जाता है और ध्वज के सम्मुख नमन किया जाता है।


नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोहम्।
महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे
पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते॥ १॥

प्रभो शक्तिमन् हिन्दुराष्ट्राङ्गभूता
इमे सादरं त्वां नमामो वयम्
त्वदीयाय कार्याय बध्दा कटीयम्
शुभामाशिषं देहि तत्पूर्तये।
अजय्यां च विश्वस्य देहीश शक्तिं
सुशीलं जगद्येन नम्रं भवेत्
श्रुतं चैव यत्कण्टकाकीर्ण मार्गं
स्वयं स्वीकृतं नः सुगं कारयेत्॥ २॥

समुत्कर्षनिःश्रेयस्यैकमुग्रं
परं साधनं नाम वीरव्रतम्
तदन्तः स्फुरत्वक्षया ध्येयनिष्ठा
हृदन्तः प्रजागर्तु तीव्रानिशम्।
विजेत्री च नः संहता कार्यशक्तिर्
विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम्।
परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं
समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्॥ ३॥

॥ भारत माता की जय ॥

प्रार्थना का हिन्दी में अर्थ

हे वात्सल्यमयी मातृभूमि, तुम्हें सदा प्रणाम! इस मातृभूमि ने हमें अपने बच्चों की तरह स्नेह और ममता दी है। इस हिन्दू भूमि पर सुखपूर्वक मैं बड़ा हुआ हूँ। यह भूमि महा मंगलमय और पुण्यभूमि है। इस भूमि की रक्षा के लिए मैं यह नश्वर शरीर मातृभूमि को अर्पण करते हुए इस भूमि को बार-बार प्रणाम करता हूँ।

हे सर्व शक्तिमान परमेश्वर, इस हिन्दू राष्ट्र के घटक के रूप में मैं तुमको सादर प्रणाम करता हूँ। आपके ही कार्य के लिए हम कटिबद्ध हुवे है। हमें इस कार्य को पूरा करने किये आशीर्वाद दे। हमें ऐसी अजेय शक्ति दीजिये कि सारे विश्व मे हमे कोई न जीत सकें और ऐसी नम्रता दें कि पूरा विश्व हमारी विनयशीलता के सामने नतमस्तक हो। यह रास्ता काटों से भरा है, इस कार्य को हमने स्वयँ स्वीकार किया है और इसे सुगम कर काँटों रहित करेंगे।

ऐसा उच्च आध्यात्मिक सुख और ऐसी महान ऐहिक समृद्धि को प्राप्त करने का एकमात्र श्रेष्ट साधन उग्र वीरव्रत की भावना हमारे अन्दर सदेव जलती रहे। तीव्र और अखंड ध्येय निष्ठा की भावना हमारे अंतःकरण में जलती रहे। आपकी असीम कृपा से हमारी यह विजयशालिनी संघठित कार्यशक्ति हमारे धर्म का सरंक्षण कर इस राष्ट्र को परम वैभव पर ले जाने में समर्थ हो।

॥ भारत माता की जय॥

हिन्दी काव्यानुवाद

हे परम वत्सला मातृभूमि! तुझको प्रणाम शत कोटि बार।
हे महा मंगला पुण्यभूमि ! तुझ पर न्योछावर तन हजार॥

हे हिन्दुभूमि भारत! तूने, सब सुख दे मुझको बड़ा किया;
तेरा ऋण इतना है कि चुका, सकता न जन्म ले एक बार।
हे सर्व शक्तिमय परमेश्वर! हम हिंदुराष्ट्र के सभी घटक,
तुझको सादर श्रद्धा समेत, कर रहे कोटिशः नमस्कार॥

तेरा ही है यह कार्य हम सभी, जिस निमित्त कटिबद्ध हुए;
वह पूर्ण हो सके ऐसा दे, हम सबको शुभ आशीर्वाद।
सम्पूर्ण

संघ साहित्य के प्रकाशक

निम्नलिखित प्रकाशन संघ की योजना द्वारा संचालित नहीं है, निजी हैं। इन प्रकाशनों ने भी उच्च कोटि का संघ साहित्य बड़ी संख्या में प्रकाशित किया है।

१. सुरुचि प्रकाशन , देशबन्धु गुप्ता मार्ग , झण्डेवाला, नई दिल्ली-५५

२. लोकहित प्रकाशन , संस्कृति भवन ; राजेन्द्र नगर, लखनऊ-४

३. राष्ट्रोत्थान साहित्य , केशव शिल्प ; केम्पगौड़ा नगर, बंगलौर-१९

४. भारतीय विचार साधना

(क) डॉ॰ हेडगेवार भवन महाल, नागपुर-४४०००२
(ख) मोती बाग ; ३०९, शनिवार पेठ, पुणे-४११०३०
(ग) मंगलदास बाड़ी, डॉ॰ भडकम्कर मार्ग नाज सिनेमा परिसर, मुम्बई-४०००४
५. ज्ञान गंगा प्रकाशन , भारती भवन, बी-१५, न्यू कालोनी, जयपुर-३०२००१

६. अर्चना प्रकाशन , एच.आई.जी.-१८, शिवाजी नगर, भोपाल-४६२०१६

७. साधना पुस्तक प्रकाशन , राम निवास ; बलिया काका मार्ग, जूनाढोर बाजार के सामने, कांकरिया, अमदाबाद -३८००२८

८. सातवलेकर स्वाध्याय , पो - किलापारडी , मण्डल जिला-वलसाड, गुजरात-३९६१२५

९. साहित्य निकेतन , ३-४/८५२, बरकतपुरा, हैदराबाद-५०००२७

१०. स्वस्तिश्री प्रकाशन , ४४/९, नवसहयाद्री सोसाइटी , नवसहयाद्री पोस्टास मोर पुणे-४११०५२

११. जागृति प्रकाशन , एफ. १०९, सेक्टर-२७ , नोएडा (गौतम बुद्ध नगर) उ.प्र. २०१३०१

१२. सूर्य भारती प्रकाशन , २५९६, नई सड़क, दिल्ली-११०००६

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS)

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) एक हिंदू राष्ट्रवादी संघटन है जिसके सिद्धांत हिंदुत्व मे निहित और आधारित हैं। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अपेक्षा संघ या आर एस एस नाम से अधिक प्रसिद्ध है। इसकी शुरुआत 1925 में डा. केशव हेडगेवार द्वारा की गयी थी । बीबीसी के अनुसार, संघ विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संस्थान है. 1925 के बाद से धीरे-धीरे इस संस्थान का राजनैतिक महत्व बढता गया और इसकी परिणति भाजपा जैसे राजनैतिक दल के रूप में हुई जिसे आमतौर पर संघ की राजनैतिक शाखा के रूप में देखा जाता है जो भारत के केन्द्रीय सत्ता पर अन्तत: सन 2000 में आसीन हुई।

 संघ में संगठनात्मक रूप से सबसे ऊपर सरसंघ चालक का स्थान होता है जो पूरे संघ का दिशा-निर्देशन करते हैं। सरसंघचालक की नियुक्ति मनोनयन द्वारा होती है। हर सरसंघचालक अपने उत्तराधिकारी की घोषणा करता है। संघ के वर्तमान सरसंघचालक श्री मोहन भागवत हैं। संघ के ज्यादातर कार्यों का निष्पादन शाखाओं द्वारा होता है, जिसमें सार्वजनिक स्थानों पर सुबह या शाम के समय एक से दो घंटे के लिये स्वयंसेवकों का परस्पर मिलन होता है। वर्तमान में पूरे भारत में संघ की लगभग पचास हजार से ज्यादा शाखाएँ लगती हैं। ये शाखाएँ संघ की बुनियाद होती है। सामान्यतया शाखा की गतिविधियों में खेल, योग वंदना और भारत एवं विश्व की साँस्कृतिक पहलुओं पर बौद्धिक चर्चा-परिचर्चा शामिल है।
 शाखा किसी मैदान या खुली जगह पर आधा / एक / दो घंटे की लगती है . शाखा में खेल, सूर्य नमस्कार, समता (परेड), गीत और प्रार्थना होती है. साधारनतया शाखा एक घंटे की व रोज लगती है.

 सुबह लगने वाली शाखा को प्रभात शाखा कहते है.

 शाम को लगने वाली शाखा को सायं शाखा कहते है.

 रात्रि को लगने वाली शाखा को रात्रि शाखा कहते है.

 सप्ताह में एक या दो बार लगने वाली शाखा को मिलन कहते है.

 महीने में एक या दो बार लगने वाली शाखा को संघ मण्डली कहते है.

 पुरे भारत में अनुमानित रूप से ५०,००० शाखाएं लगती है. विश्व के अन्य देशों में भी शाखाओं का कार्य चलता है, पर यह कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम से नहीं चलता है. कही पर भारतीय स्वयंसेवक संघ तो कही हिन्दू स्वयंसेवक संघ के माध्यम से चलता है.
 शाखा में कार्यवाह का पद सबसे बड़ा होता है. उसके बाद शाखाओं का दैनिंक कार्य सुचारू रूप से चलने के लिए मुख्य शिक्षक का पद होता है. शाखा में बोद्धिक व शारीरिक क्रियाओं के साथ स्वयमसेवकों का पूर्ण विकास किया जाता है.
 हर सदस्य जो शाखा में आता है, वह स्वयंसेवक कहलाता है.

 महात्मा गाँधी की मुस्लिम तुष्टीकरण नीति से क्षुब्ध होकर 1948 में नाथूराम गोडसे द्वारा उनकी हत्या करने के बाद संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। गोडसे संघ और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक भूतपूर्व स्वयंसेवक थे। बाद में एक जाँच समिति की जाँच के बाद संघ को इस आरोप से बरी कर दिया गया और प्रतिबंध समाप्त कर दिया गया।

 संघ के आलोचकों के द्वारा संघ को एक अतिवादी दक्षिणपंथी संगठन बताया जाता रहा है एवं हिंदूवादी और फ़ासीवादी संगठन के तौर पर संघ की आलोचना की जाती रही है। जबकि संघ के स्वयंसेवकों का कहना है कि सरकार एवं देश की अधिकांश पार्टियाँ अल्पसंख्यक- तुष्टीकरण में लिप्त रहती हैं। उदाहरणार्थ- विवादास्पद शाहबानो प्रकरण एवं हज यात्रा में दी जानेवाली सब्सिडी इत्यादि की नीति समाप्त करे।

 संघ का यह मानना है कि ऐतिहासिक रूप से हिंदू स्वदेश में ही हमेशा से उपेक्षित और उत्पीड़ित रहे हैं और हम सिर्फ़ हिंदुओं के जायज अधिकारों की बात करते हैं। आलोचकों का कहना है कि ऐसे विचारों एवं प्रचारों से भारत का धर्मनिरपेक्ष बुनियाद कमज़ोर होता है। इस क्रम में सबसे विवादास्पद और चर्चित मामला अयोध्या विवाद रहा है जिसमें बाबर द्वारा सोलहवीं सदी में निर्मित एक ढाँचा विवादित ढाँचा के स्थान पर राम मंदिर का निर्माण करना है। अधिकांश हिंदुओं का ऐसा मानना है कि यहीं भगवान राम की पैदाईश हुई थी।

 संघ की उपस्थिति भारतीय समाज के हर क्षेत्र में महसूस की जा सकती है जिसकी शुरुआत 1925 से होती है। उदाहरण के तौर पर 1962 के भारत-चीन युद्ध में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू संघ की भूमिका से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने संघ को गणतंत्र दिवस के 1963 के परेड में सम्मिलित होने का निमन्त्रण दिया। सिर्फ़ दो दिनों की पूर्व सूचना पर तीन हजार से भी ज्यादा स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में वहाँ उपस्थित हो गये।

 वर्तमान समय में संघ के दर्शन का पालन करने वाले कतिपय लोग देश के सर्वोच्च पदों तक पहुँचने मे भीं सफल रहे हैं। ऐसे प्रमुख व्यक्तियों में उपराष्ट्रपति पद पर भैरोसिंह शेखावत, प्रधानमंत्री पद पर अटल बिहारी वाजपेयी एवं उपप्रधानमंत्री व गृहमंत्री के पद पर लालकृष्ण आडवाणी जैसे लोग शामिल हैं।

 संघ के सरसं

कृपाहल्ली सीतारमैया सुदर्शन उपाख्य सुदर्शनजी

श्री कुप्पाहाली सीतारमय्या सुदर्शन (१८ जून १९३१-१५ सितंबर २०१२) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पाँचवें सरसंघचालक थे। मार्च २००९ में श्री मोहन भागवत को छठवाँ सरसंघचालक नियुक्त कर स्वेच्छा से पदमुक्त हो गये। 15 सितम्बर 2012 को अपने जन्मस्थान रायपुर में 81 वर्ष की अवस्था में इनका निधन हो गया।[1]

जीवनी संपादित करें

श्री के एस सुदर्शन का जन्म रायपुर (छत्तीसगढ़) में एक कन्नड़ भाषी परिवार में हुआ था। उन्होने जबलपुर के राजकीय इंजीनियरी महाविद्यालय (सागर विश्वविद्यालय) से दूरसंचार प्रौद्योगिकी में स्नातक की उपाधि अर्जित की। १६ जनवरी २००९ को मेरठ के शोभित विश्वविद्यालय ने उनको 'डॉक्टर ऑफ आर्ट्स' की मानद उपाधि से विभूषित किया।

राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया)

प्रो॰ राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया)
जन्म 29 जनवरी 1922
शाहजहांपुर उत्तर प्रदेश भारत
मृत्यु जुलाई 14, 2003 (उम्र 81)
पुणे महाराष्ट्र भारत
प्रो॰ राजेन्द्र सिंह (२९ जनवरी १९२२[1] - १४ जुलाई २००३) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चौथे सरसंघचालक थे, जिन्हें सर्वसाधारण जन से लेकर संघ परिवार तक सभी जगह रज्जू भैया के नाम से ही जाना जाता है। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में १९३९ से १९४३ तक विद्यार्थी रहे। तत्पश्चात् १९४३ से १९६७ तक भौतिकी विभाग में पहले प्रवक्ता नियुक्त हुए, फिर प्राध्यापक और अन्त में विभागाध्यक्ष हो गये। रज्जू भैया भारत के महान गणितज्ञ हरीशचन्द्र के बी०एससी० और एम०एससी० (भौतिक शास्त्र) में सहपाठी थे।

जीवनी संपादित करें

रज्जू भैया का जन्म उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर शहर की इन्जीनियर्स कालोनी[2] में २९ जनवरी सन् १९२२ को इं० (कुँवर) बलबीर सिंह की धर्मपत्नी ज्वाला देवी के गर्भ से हुआ था। उस समय उनके पिताजी बलबीर सिंह वहाँ सिचाई विभाग में अभियन्ता के रूप में तैनात थे। बलबीर सिंह जी मूलत: उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जनपद के बनैल पहासू गाँव के निवासी थे जो बाद में उत्तर प्रदेश के सिचाई विभाग से मुख्य अभियन्ता के पद से सेवानिवृत हुए। वे भारतीय इंजीनियरिंग सेवा (आई०ई०एस०) में चयनित होने वाले प्रथम भारतीय थे। परिवार की परम्परानुसार सभी बच्चे अपनी माँ ज्वाला देवी को "जियाजी" कहकर सम्बोधित किया करते थे। अपने माता-पिता की कुल पाँच सन्तानों में रज्जू भैया तीसरे थे। उनसे बडी दो बहनें - सुशीला व चन्द्रवती थीं तथा दो छोटे भाई - विजेन्द्र सिंह व यतीन्द्र सिंह भारतीय प्रशासनिक सेवा में थे और केन्द्र व राज्य सरकार में उच्च पदों पर रहे।[3]

उत्प्रेरक आत्मकथ्य संपादित करें

एक पुस्तक[4] में उन्होंने यह रहस्योद्घाटन उस समय किया था जब वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक के पद को सुशोभित कर रहे थे पाठकों की जानकारी हेतु ये तथ्य उसी पुस्तक से ज्यों के त्यों उद्धृत किये जा रहे हैं:

"मेरे पिताजी सन् १९२१-२२ के लगभग शाहजहाँपुर में इंजीनियर थे। उनके समीप ही इंजीनियरों की उस कालोनी में काकोरी काण्ड के एक प्रमुख सहयोगी श्री प्रेमकृष्ण खन्ना के पिता श्री रायबहादुर रामकृष्ण खन्ना भी रहते थे। श्री राम प्रसाद 'बिस्मिल' प्रेमकृष्ण खन्ना के साथ बहुधा इस कालोनी के लोगों से मिलने आते थे। मेरे पिताजी मुझे बताया करते थे कि 'बिस्मिल' जी के प्रति सभी के मन में अपार श्रद्धा थी। उनका जीवन बडा शुद्ध और सरल, प्रतिदिन नियमित योग और व्यायाम के कारण शरीर बडा पुष्ट और बलशाली तथा मुखमण्डल ओज और तेज से व्याप्त था। उनके तेज और पुरुषार्थ की छाप उन पर जीवन भर बनी रही। मुझे भी एक सामाजिक कार्यकर्ता मानकर वे प्राय: 'बिस्मिल' जी के बारे में बहुत-सी बातें बताया करते थे।"

– प्रो॰ राजेन्द्र सिंह सरसंघचालक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

संघ यात्रा संपादित करें

रज्जू भैया की संघ यात्रा असामान्य है। वे बाल्यकाल में नहीं युवावस्था में सजग व पूर्ण विकसित मेधा शक्ति लेकर प्रयाग आये। सन् १९४२ में एम.एससी. प्रथम वर्ष में संघ की ओर आकर्षित हुए और केवल एक-डेढ़ वर्ष के सम्पर्क में एम.एससी. पास करते ही वे प्रयाग विश्वविद्यालय में व्याख्याता पद पाने के साथ-साथ प्रयाग के नगर कायर्वाह का दायित्व सँभालने की स्थिति में पहुँच गये। १९४६ में प्रयाग विभाग के कार्यवाह, १९४८ में जेल-यात्रा, १९४९ में दो तीन विभागों को मिलाकर संभाग कार्यवाह, १९५२ में प्रान्त कार्यवाह और १९५४ में भाऊराव देवरस के प्रान्त छोड़ने के बाद उनकी जगह पूरे प्रान्त का दायित्व सँभालने लगे। १९६१ में भाऊराव के वापस लौटने पर प्रान्त-प्रचारक का दायित्व उन्हें वापस देकर सह प्रान्त-प्रचारक के रूप में पुन:उनके सहयोगी बने। भाऊराव के कार्यक्षेत्र का विस्तार हुआ तो पुन: १९६२ से १९६५ तक उत्तर प्रदेश के प्रान्त प्रचारक, १९६६ से १९७४ तक सह क्षेत्र-प्रचारक व क्षेत्र-प्रचारक का दायित्व सँभाला। १९७५ से १९७७ तक आपातकाल में भूमिगत रहकर लोकतन्त्र की वापसी का आन्दोलन खड़ा किया। १९७७ में सह-सरकार्यवाह बने तो १९७८ मार्च में माधवराव मुले का सर-कार्यवाह का दायित्व भी उन्हें ही दिया गया। १९७८ से १९८७ तक इस दायित्व का निर्वाह करके १९८७ में हो० वे० शेषाद्रि को यह दायित्व देकर सह-सरकार्यवाह के रूप में उनके सहयोगी बने। १९९४ में तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने अपने गिरते स्वास्थ्य के कारण जब अपना उत्तराधिकारी खोजना शुरू किया तो सबकी निगाहें रज्जू भैया पर ठहर गयीं और ११ मार्च १९९४ को बाला साहेब ने सरसंघचालक का शीर्षस्थ दायित्व स्वयमेव उन्हें सौंप दिया।

संघ के इतिहास में यह एक असामान्य घटना थी। प्रचार माध्यमों और संघ के आलोचकों की आँखे इस दृश्य को देखकर फटी की फटी रह गयीं। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर वे अब तक महाराष्ट्रीयन ब्राह्मणों के एकाधिकार की छवि थोपते आये हैं, उसके शिखर पर उत्तर भारत का कोई गैर-महाराष्ट्रियन अब्राह्मण पहुँच सकता है - वह भी सर्वसम्मति से। रज्जू भैया का शरीर उस समय रोगग्रस्त और शिथिल था किन्तु उन्होंने प्राण-पण से सौंपे गये दायित्व को निभाने का जी-तोड प्रयास किया। परन्तु अहर्निश कार्य और समाज-चिन्तन से बुरी तरह टूट चुके अपने शरीर से भला और कब तक काम लिया जा सकता था। अतएव सन् १९९९ में ही उन्होंने उस दायित्व का भार किसी कम उम्र के व्यक्ति को सौंपने का मन बना लिया। और अन्त में अपने सहयोगियों के आग्रहपूर्ण अनुरोध का आदर करते हुए एक वर्ष की प्रतीक्षा के बाद, मार्च २००० में सुदर्शन जी को यह दायित्व सौपकर स्वैच्छिक पद-संन्यास का संघ के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत किया।

अप्रतिम उदाहरण संपादित करें

रज्जू भैया की ६० वर्ष लम्बी संघ-यात्रा केवल इस दृष्टि से ही असामान्य नहीं है कि किस प्रकार वे एक के बाद दूसरा बड़ा दायित्व सफलतापूर्वक निभाते रहे अपितु इस दृष्टि से भी है कि १९४३ से १९६६ तक वे प्रयाग विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य के साथ-साथ एक पूर्णकालिक प्रचारक की भाँति यत्र-तत्र-सर्वत्र घूमते हुए समस्त दायित्वों का निर्वाह करते रहे। संघ-कार्य हेतु अपनी क्षमता को बढ़ाने के लिये वे संघ शिक्षा वर्ग में तीन वर्ष के परम्परागत प्रशिक्षण पर निर्भर नहीं रहे। प्रथम वर्ष का प्रशिक्षण उन्होंने १९४७ में तब प्राप्त किया जब वे प्रयाग के नगर कार्यवाह की स्थिति में पहुँच चुके थे, द्वितीय वर्ष उन्होंने १९५४ में बरेली के संघ-शिक्षा-वर्ग में उस समय किया जब भाऊराव देवरस उन्हें समूचे प्रान्त का दायित्व सौंपकर बाहर जाने की तैयारी कर चुके थे। तृतीय वर्ष उन्होंने १९५७ में किया जब वे उत्तर प्रदेश जैसे बड़े प्रान्त का दायित्व सँभाल रहे थे। इस बात से स्पष्ट है कि उन्होंने तीन वर्ष के प्रशिक्षण की औपचारिकता का निर्वाह संघ के अन्य स्वयंसेवकों के सम्मुख योग्य उदाहरण प्रस्तुत करने के लिये किया अपने लिये योग्यता अर्जित करने के लिये नहीं।

प्रयाग विश्वविद्यालय में पढ़ाते हुए भी वे संघ-कार्य में प्रचारकवत जुटे रहे। औपचारिक तौर पर उन्हें प्रचारक १९५८ में घोषित किया गया पर सचाई यह है कि उन्होंने कार्यवाह पद को प्रचारक की भूमिका स्वयं प्रदान कर दी। भौतिक शास्त्र जैसे गूढ विषय पर असामान्य अधिकार रखने के साथ-साथ अत्यन्त सरल व रोचक अध्यापन शैली और अपने शिष्यों के प्रति स्नेह भावना के कारण रज्जू भैया प्रयाग विश्वविद्यालय के सर्वाधिक लोकप्रिय और सफल प्राध्यापक थे। वरिष्ठता और योग्यता के कारण उन्हें कई वर्षों तक विभाग के अध्यक्ष-पद का दायित्व भी प्रोफेसर के साथ-साथ सँभालना पड़ा। किन्तु यह सब करते हुए भी वे संघ-कार्य में अपने दायित्वों का निर्वाह पूरी तरह करते रहे। रीडर या प्रोफेसर बनने की कोई कामना उनके मन में कभी नहीं जगी। जिन दिनों प्रयाग विश्वविद्यालय में भौतिकी विभाग के रीडर पद के लिये आवदेन माँगे गये उन्होंने आवेदन पत्र ही नहीं दिया। सहयोगियों ने पूछा कि रज्जू भैया! आपने ऐसा क्यों किया? तो उन्होंने बड़े सहज ढँग से उत्तर दिया- "अरे मेरा जीवन-कार्य तो संघ-कार्य है, विश्वविद्यालय की प्रोफेसरी नहीं। अभी मैं सप्ताह में चार दिन कक्षायें लेता हूँ, तीन दिन संघ-कार्य के लिए दौरा करता हूँ। कभी-कभी बहुत कोशिश करने पर भी विश्वविद्यालय समय पर नहीं पहुँच पाता। अभी तो विभाग के सब अध्यापक मेरा सहयोग करते हैं किन्तु यदि मैं रीडर पद पर अभ्यार्थी बना तो वे मुझे अपना प्रतिस्पर्धी समझने लगेंगे। इसलिए क्यों इस पचड़े में फँसना।" रज्जू भैया का सम्पूर्ण जीवन इस बात का साक्षी है कि उन्हें पद की आकांक्षा अथवा उसका मोह कभी रहा ही नहीं।

विश्वविद्यालय में अध्यापक रह कर भी उन्होंने अपने लिये धनार्जन नहीं किया। वे अपने वेतन की एक-एक पाई को संघ-कार्य पर व्यय कर देते थे। सम्पन्न परिवार में जन्म लेने, पब्लिक स्कूलों में शिक्षा पाने, संगीत और क्रिकेट जैसे खेलों में रुचि होने के बाद भी वे अपने ऊपर कम से कम खर्च करते थे। मितव्ययता का वे अपूर्व उदाहरण थे। वर्ष के अन्त में अपने वेतन में से जो कुछ बचता उसे गुरु-दक्षिणा के रूप में समाज को अर्पित कर देते थे। एक बार राष्ट्रधर्म प्रकाशन आर्थिक संकट में फँस गया तो उन्होंने अपने पिताजी से आग्रह करके अपने हिस्से की धनराशि देकर राष्ट्रधर्म प्रकाशन को संकट से उबारा। यह थी उनकी सर्वत्यागी संन्यस्त वृत्ति की अभिव्यक्ति!

संवेदनशील अंत:करण संपादित करें

नि:स्वार्थ स्नेह और निष्काम कर्म साधना के कारण रज्जू भैया सबके प्रिय था। संघ के भीतर भी और बाहर भी। पुरुषोत्तम दास टण्डन और लाल बहादुर शास्त्री जैसे राजनेताओं के साथ-साथ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जैसे सन्तों का विश्वास और स्नेह भी उन्होंने अर्जित किया था। बहुत संवेदनशील अन्त:करण के साथ-साथ रज्जू भैया घोर यथार्थवादी भी थे। वे किसी से भी कोई भी बात निस्संकोच कह देते थे और उनकी बात को टालना कठिन हो जाता था। आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार में जब नानाजी देशमुख को उद्योग मन्त्री का पद देना निश्चित हो गया तो रज्जू भैया ने उनसे कहा कि नानाजी अगर आप, अटलजी और आडवाणीजी - तीनों सरकार में चले जायेंगे तो बाहर रहकर संगठन को कौन सँभालेगा? नानाजी ने उनकी इच्छा का आदर करते हुए तुरन्त मन्त्रीपद ठुकरा दिया और जनता पार्टी का महासचिव बनना स्वीकार किया। चाहे अटलजी हों, या आडवाणीजी; अशोकजी सिंहल हों, या दत्तोपन्त ठेंगडीजी - हरेक शीर्ष नेता रज्जू भैया की बात का आदर करता था; क्योंकि उसके पीछे स्वार्थ, कुटिलता या गुटबन्दी की भावना नहीं होती थी। इस दृष्टि से देखें तो रज्जू भैया सचमुच संघ-परिवार के न केवल बोधि-वृक्ष अपितु सबको जोड़ने वाली कड़ी थे, नैतिक शक्ति और प्रभाव का स्रोत थे। उनके चले जाने से केवल संघ ही नहीं अपितु भारत के सार्वजनिक जीवन में एक युग का अन्त हो गया है। रज्जू भैया केवल हाड़-माँस का शरीर नहीं थे। वे स्वयं में ध्येयनिष्ठा, संकल्प व मूर्तिमन्त आदर्शवाद की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। इसलिए रज्जू भैया सभी के अन्त:करण में सदैव जीवित रहेंगे। देखा जाये तो रज्जू भैया आज मर कर भी अमर हैं।

रज्जू भैया की पीड़ा संपादित करें

रज्जू भैया इस बात से बड़े दुखी थे कि क्रान्तिकारी 'बिस्मिल' के नाम पर इस देश में कोई भव्य स्मारक हमारे नेता लोग नहीं बना सके। वे तुर्की के राष्ट्रीय स्मारक जैसा स्मारक भारत की राजधानी दिल्ली में बना हुआ देखना चाहते थे। उन्होंने कहा था: "लच्छेदार भाषण देकर अपनी छवि को निखारने के लिये तालियाँ बटोर लेना अलग बात है, नेपथ्य में रहकर दूसरों के लिये कुछ करना अलग बात है।" वे चिन्तक थे, मनीषी थे, समाज-सुधारक थे, कुशल संगठक थे और कुल मिलाकर एक बहुत ही सहज और सर्वसुलभ महापुरुष थे। ऐसा व्यक्ति बड़ी दीर्घ अवधि में कोई एकाध ही पैदा होता है[5]।

मधुकर दत्तात्रेय देवरस

मधुकर दत्‍तात्रेय देवरस (11 दिसम्बर 1915 - 17 जून 1996)) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक थे। वे 'बाला साहब देवरस' नाम से अधिक प्रसिद्ध हैं।

जीवनी संपादित करें

श्री बाला साहब देवरस का जन्‍म 11 दिसम्‍बर 1915 को नागपुर में हुआ था। उनके पिता सकारी कर्मचारी थे और नागपुर इतवारी मे आपका निवास था। यहीं देवरस परिवार के बच्चे व्यायामशाला जाते थे 1925 मे संघ की शाखा प्रारम्भ हुई और कुछ ही दिनों बाद बालसाहेब ने शाखा जाना प्रारम्भ कर दिया।

स्थायी रूप से उनका परिवार मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले के आमगांव के निकटवर्ती ग्राम कारंजा का था। उनकी सम्‍पूर्ण शिक्षा नागपुर में ही हुई। न्यू इंगलिश स्कूल मे उनकी प्रारम्भिक शिक्षा हुई। संस्कृत और दर्शनशास्त्र विषय लेकर मौरिस कालेज से बालसाहेब ने 1935 मे बी0ए0 किया। दो वर्ष बाद उनहोंने विधि (ला) की परीक्षा उत्तीर्ण की। विधि स्नातक बनने के बाद बालसाहेब ने दो वर्ष तक 'अनाथ विद्यार्थी बस्ती गृह' मे अध्यापन कार्य किया। इसके बाद उन्हें नागपुर मे नगर कार्यवाह का दायित्व सौंपा गया। 1965 में उन्हें सरकार्यवाह का दायित्व सौंपा गया जो 6 जून 1973 तक उनके पास रहा।

श्रीगुरू जी के स्‍वर्गवास के बाद 6 जूल 1973 को सरसंघचालक के दायित्‍व को ग्रहण किया। उनके कार्यकाल में संघ कार्य को नई दिशा मिली। उन्‍होने सेवाकार्य पर बल दिया परिणाम स्‍वरूप उत्‍तर पूर्वाचल सहित देश के वनवासी क्षेत्रों के हजारों की संख्‍या में सेवाकार्य आरम्‍भ हुए।

सन् 1975 में भारत की तत्‍कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर संघ पर प्रतिबन्‍ध लगा दिया। हजारों संघ के स्‍वयंसेवको को मीसा तथा डी आई आर जैसे काले कानून के अन्‍तर्गत जेलों में डाल दिया गया और यातनाऐं दी गई। परमपूज्‍यनीय बाला साहब की प्रेरण एवं सफल मार्गदर्शन में विशाल सत्‍याग्रह हुआ और 1977 में आपातकाल समाप्‍त होकर संघ से प्रतिबन्‍ध हटा।

स्‍वास्‍थ्‍य कारणों से जीवन काल में ही सन् 1994 में ही सरसंघचालक का दायित्‍व उन्‍होने प्रो॰ राजेन्‍द्र प्रसाद उपाख्‍य रज्‍जू भइया को सौप दिया। 17 जून 1996 को उनका स्‍वर्गवास हो गया।

उनके छोटे भाई भाऊराव देवरस ने भी संघ परिवार एवं भारतीय राजनीति में महती भूमिका निभाई।

माधव सदाशिव गोलवलकर

जन्म 19 फ़रवरी 1906
रामटेक, महाराष्ट्र, भारत
मृत्यु 5 जून 1973
नागपुर, महाराष्ट्र, भारत
माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरूजी (मराठी: माधव सदाशिव गोळवलकर ; जन्म: १९ फ़रवरी १९०६ - मृत्यु: ५ जून १९७३) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक तथा महान विचारक थे। उन्हें जनसाधारण प्राय: 'गुरूजी' के ही नाम से अधिक जानते हैं।

संक्षिप्त जीवन वृत्त संपादित करें

उनका जन्म फाल्गुन मास की एकादशी संवत् 1963 तदनुसार 19 फ़रवरी 1906 को महाराष्ट्र के रामटेक में हुआ था। वे अपने माता-पिता की चौथी संतान थे। उनके पिता का नाम श्री सदाशिव राव उपाख्य 'भाऊ जी' तथा माता का श्रीमती लक्ष्मीबाई उपाख्य 'ताई' था। उनका बचपन में नाम माधव रखा गया पर परिवार में वे मधु के नाम से ही पुकारे जाते थे। पिता सदाशिव राव प्रारम्भ में डाक-तार विभाग में कार्यरत थे परन्तु बाद में सन् 1908 में उनकी नियुक्ति शिक्षा विभाग में अध्यापक पद पर हो गयी।

शिक्षा के साथ अन्य अभिरुचियाँ संपादित करें

मधु जब मात्र दो वर्ष के थे तभी से उनकी शिक्षा प्रारम्भ हो गयी थी। पिताश्री भाऊजी जो भी उन्हें पढ़ाते थे उसे वे सहज ही इसे कंठस्थ कर लेते थे। बालक मधु में कुशाग्र बुध्दि, ज्ञान की लालसा, असामान्य स्मरण शक्ति जैसे गुणों का समुच्चय बचपन से ही विकसित हो रहा था। सन् 1919 में उन्होंने 'हाई स्कूल की प्रवेश परीक्षा' में विशेष योग्यता दिखाकर छात्रवृत्ति प्राप्त की। सन् 1922 में 16 वर्ष की आयु में माधव ने मैट्रिक की परीक्षा चाँदा (अब चन्द्रपुर) के 'जुबली हाई स्कूल' से उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् सन् 1924 में उन्होंने नागपुर के ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित 'हिस्लाप कॉलेज' से विज्ञान विषय में इण्टरमीडिएट की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की। अंग्रेजी विषय में उन्हें प्रथम पारितोषिक मिला। वे भरपूर हाकी तो खेलते ही थे कभी-कभी टेनिस भी खेल लिया करते थे। इसके अतिरिक्त व्यायाम का भी उन्हें शौक था। मलखम्ब के करतब, पकड़ एवं कूद आदि में वे काफी निपुण थे। विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने बाँसुरी एवं सितार वादन में भी अच्छी प्रवीणता हासिल कर ली थी।

विश्वविद्यालय में ही आध्यात्मिक रुझान संपादित करें

इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद माधवराव के जीवन में एक नये दूरगामी परिणाम वाले अध्याय का प्रारम्भ सन् 1924 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश के साथ हुआ। सन् 1926 में उन्होंने बी.एससी. और सन् 1928 में एम.एससी. की परीक्षायें भी प्राणि-शास्त्र विषय में प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण कीं। इस तरह उनका विद्यार्थी जीवन अत्यन्त यशस्वी रहा। विश्वविद्यालय में बिताये चार वर्षों के कालखण्ड में उन्होंने विषय के अध्ययन के अलावा "संस्कृत महाकाव्यों, पाश्चात्य दर्शन, श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द की ओजपूर्ण एवं प्रेरक 'विचार सम्पदा', भिन्न-भिन्न उपासना-पंथों के प्रमुख ग्रंथों तथा शास्त्रीय विषयों के अनेक ग्रंथों का आस्थापूर्वक पठन किया"[1]। इसी बीच उनकी रुचि आध्यात्मिक जीवन की ओर जागृत हुई। एम.एससी. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् वे प्राणि-शास्त्र विषय में 'मत्स्य जीवन' पर शोध कार्य हेतु मद्रास (चेन्नई) के मत्स्यालय से जुड़ गये। एक वर्ष के दौरान ही उनके पिता श्री भाऊजी सेवानिवृत्त हो गये, जिसके कारण वह श्री गुरूजी को पैसा भेजने में असमर्थ हो गये। इसी मद्रास-प्रवास के दौरान वे गम्भीर रूप से बीमार पड़ गये। चिकित्सक का विचार था कि यदि सावधानी नहीं बरती तो रोग गम्भीर रूप धारण कर सकता है। दो माह के इलाज के बाद वे रोगमुक्त तो हुए परन्तु उनका स्वास्थ्य पूर्णरूपेण से पूर्ववत् नहीं रहा। मद्रास प्रवास के दौरान जब वे शोध में कार्यरत थे तो एक बार हैदराबाद का निजाम मत्स्यालय देखने आया। नियमानुसार प्रवेश-शुल्क दिये बिना उसे प्रवेश देने से श्री गुरूजी ने इन्कार कर दिया[2]। आर्थिक तंगी के कारण श्री गुरूजी को अपना शोध-कार्य अधूरा छोड़ कर अप्रैल 1929 में नागपुर वापस लौटना पड़ा।उनमे अद्भुत क्षमता थी लोगो को अपनी ओर आकर्षित करने की।

प्राध्यापक के रूप में श्रीगुरूजी संपादित करें

नागपुर आकर भी उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहा। इसके साथ ही उनके परिवार की आर्थिक स्थिति भी अत्यन्त खराब हो गयी थी। इसी बीच बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्हें निदर्शक पद पर सेवा करने का प्रस्ताव मिला। 16 अगस्त सन् 1931 को श्री गुरूजी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राणि-शास्त्र विभाग में निदर्शक का पद संभाल लिया। चूँकि यह अस्थायी नियुक्ति थी। इस कारण वे प्राय: चिन्तित भी रहा करते थे।

अपने विद्यार्थी जीवन में भी माधव राव अपने मित्रों के अध्ययन में उनका मार्गदर्शन किया करते थे और अब तो अध्यापन उनकी आजीविका का साधन ही बन गया था। उनके अध्यापन का विषय यद्यपि प्राणि-विज्ञान था, विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनकी प्रतिभा पहचान कर उन्हें बी.ए. की कक्षा के छात्रों को अंग्रेजी और राजनीति शास्त्र भी पढ़ाने का अवसर दिया। अध्यापक के नाते माधव राव अपनी विलक्षण प्रतिभा और योग्यता से छात्रों में इतने अधिक अत्यन्त लोकप्रिय हो गये कि उनके छात्र उनको गुरुजी के नाम से सम्बोधित करने लगे। इसी नाम से वे आगे चलकर जीवन भर जाने गये। माधव राव यद्यपि विज्ञान के परास्नातक थे, फिर भी आवश्यकता पड़ने पर अपने छात्रों तथा मित्रों को अंग्रेजी, अर्थशास्त्र, गणित तथा दर्शन जैसे अन्य विषय भी पढ़ाने को सदैव तत्पर रहते थे (भिशीकर, वही, पृष्ठ 17)। यदि उन्हें पुस्तकालय में पुस्तकें नहीं मिलती थीं, तो वे उन्हें खरीद कर और पढ़कर जिज्ञासी छात्रों एवं मित्रों की सहायता करते रहते थे। उनके वेतन का बहुतांश अपने होनहार छात्र-मित्रों की फीस भर देने अथवा उनकी पुस्तकें खरीद देने में ही व्यय हो जाया करता था।
संघ प्रवेश संपादित करें

सबसे पहले ""डॉ॰ हेडगेवार"" के द्वारा काशी विश्वविद्यालय भेजे गए नागपुर के स्वयंसेवक भैयाजी दाणी के द्वारा श्री गुरूजी संघ के सम्पर्क में आये और उस शाखा के संघचालक भी बने। 1937 में वो नागपुर वापस आ गए। नागपुर में श्री गुरूजी के जीवन में एक दम नए मोड़ का आरम्भ हो गया। ""डॉ हेडगेवार"" के सानिध्य में उन्होंने एक अत्यंत प्रेरणा दायक राष्ट्र समर्पित व्यक्तित्व को देखा। किसी आप्त व्यक्ति के द्वारा इस विषय पर पूछने पर उन्होंने कहा- "मेरा रुझान राष्ट्र संगठन कार्य की और प्रारम्भ से है। यह कार्य संघ में रहकर अधिक परिणामकारिता से मैं कर सकूँगा ऐसा मेरा विश्वास है। इसलिए मैंने संघ कार्य में ही स्वयं को समर्पित कर दिया। मुझे लगता है स्वामी विवेकानंद के तत्वज्ञान और कार्यपद्धति से मेरा यह आचरण सर्वथा सुसंगत है।" 1938 के पश्चात संघ कार्य को ही उन्होंने अपना जीवन कार्य मान लिया। डॉ हेडगेवार के साथ निरंतर रहते हुवे अपना सारा ध्यान संघ कार्य पर ही केंद्रित किया।इससे डॉ हेडगेवार जी का ध्येय पूर्ण हुआ।

द्वितीय संघचालक हेतु नियुक्ति संपादित करें

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक ""डॉ हेडगेवार"" के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भाव और प्रबल आत्म संयम होने की वजह से 1939 में माधव सदाशिव गोलवलकर को संघ का सरकार्यवाह नियुक्त किया गया। 1940 में ""हेडगेवार"" का ज्वर बढ़ता ही गया और अपना अंत समय जानकर उन्होंने उपस्थित कार्यकर्ताओं के सामने माधव को अपने पास बुलाया और कहा ""अब आप ही संघ का कार्य सम्भालें""। 21 जून 1940 को हेडगेवार अनंत में विलीन हो गए।

भारत छोड़ो- श्री गुरूजी का दृष्टिकोण संपादित करें

9 अगस्त 1942 को बिना शक्ति के ही कोंग्रेस ने अंग्रेजों के खिलाफ ""भारत छोड़ो"" आंदोलन छेड़ दिया।देश भर में बड़ा आंदोलन शुरू तो हो गया,परन्तु असंगठित दिशाहीन होने से जनता की तरफ से कई प्रकार की तोड़ फोड़ होने लगी। सत्ताधारियों ने बड़ी क्रूरता से दमन नीतियाँ अपनाई। 2-3 महीने होते-होते आंदोलन की चिंगारी शांत हो गई। देश के सभी नेता कारागार में थे और उनकी रिहाई की कोई आशा दिखाई नहीं दे रही थी। श्री गुरूजी ने निर्णय किया था की संघ प्रत्यक्ष रूप से तो आंदोलन में भाग नहीं लेगा किन्तु स्वयंसेवकों को व्यक्तिशः प्रेरित किया जाएगा।

विभाजन संकट में अद्वितीय नेतृत्व संपादित करें

16 अगस्त 1946 को मुहम्मद अली जिन्नाह ने सीधी कार्यवाही का दिन घोषित कर के हिन्दू हत्या का तांडव मचा दिया। उन्ही दिनोँ में श्री गुरूजी देश भर के अपने प्रत्येक भाषण में देश विभाजन के खिलाफ डट कर खड़े होने के लिए जनता का आह्वान करते रहे किन्तु कांग्रेसी नेतागण अखण्ड भारत के लिए लड़ने की मनः स्थिति में नहीं थे। पण्डित नेहरू ने भी स्पष्ट शब्दों में विभाजन को स्वीकार कर लिया था और 3 जून 1947 को इसकी घोषणा कर दी गई। एकाएक देश की स्थिति बदल गई। इस कठिन समय में स्वयंसेवकों ने पाकिस्तान वाले भाग से हिंदुओं को सुरक्षित भारत भेजना शुरू किया। संघ का आदेश था की जब तक आखिरी हिन्दू सुरक्षित ना आ जाए तब तक डटे रहना है। भीषण दिनों में स्वयंसेवकों का अतुलनीय पराक्रम, रणकुशलता, त्याग और बलिदान की गाथा भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से लिखने लायक है। श्री गुरूजी भी इस कठिन घडी में पाकिस्तान के भाग में प्रवास करते रहे।

संघ पर प्रतिबन्ध संपादित करें

30 जनवरी 1948 को गांधी हत्या के मिथ्या आरोप में 4 फरवरी को संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया। श्री गुरूजी को गिरफ्तार किया गया।देश भर में स्वयंसेवको की गिरफ्तारियां हुई। जेल में रहते हुवे उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं का विस्तृत व्यक्तव्य भेजा जिसमे सरकार को मुहतोड़ जवाब दिया गया था। आह्वान किया गया की संघ पर आरोप सिद्ध करो या प्रतिबन्ध हटाओ। देश भर में यह स्वर गूंज उठा था। 26 फरवरी 1948 को देश के प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को गृह मंत्री वल्लभ भाई पटेल ने अपने पत्र में लिखा था ""गांधी हत्या के काण्ड में मैंने स्वयं अपना ध्यान लगाकर पूरी जानकारी प्राप्त की है। उस से जुड़े हुवे सभी अपराधी लोग पकड़ में आ गए हैं। उनमें एक भी व्यक्ति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नहीं है।""

9 दिसम्बर 1948 को सत्याग्रह नाम के इस आंदोलन की शुरुआत होते ही कुछ 4-5 हज़ार बच्चों का यह आंदोलन है ऐसा मानकर नेतागण ने इसका मजाक उड़ाया। लेकिन उसके उलट किसी भी कांग्रेसी आंदोलन में इतनी संख्या नहीं थी। 77090 स्वयंसेवकों ने विभिन्न जेलों को भर दिया। आख़िरकार संघ को लिखित संविधान बनाने का आदेश दे कर प्रतिबन्ध हटा लिया गया और अब गांधी हत्या का इसमें जिक्र तक नहीं हुआ।

तब सरदार वल्लभभाई पटेल ने गुरूजी को भेजे हुवे अपने सन्देश में लिखा की ""संघ पर से पाबन्दी उठाने पर मुझे जितनी ख़ुशी हुई इसका प्रमाण तो उस समय जो लोग मेरे निकट थे वे ही बता सकते हैं... मैं आपको अपनी शुभकामनाएं भेजता हूँ।""

चीन आक्रमण के दौरान श्री गुरूजी का मार्गदर्शन संपादित करें

श्री गुरूजी ने चीनी आक्रमण शुरू होते ही जो मार्ग दर्शन दिया उसके परिप्रेक्ष्य में स्वयंसेवक युद्ध प्रयत्नों में जनता का समर्थन जुटाने तथा उनका मनोबल दृढ करने में जुट गए। उनके सामयिक सहयोग का महत्व पण्डित नेहरू को भी स्वीकार करना पड़ा और उन्होंने सन् 1963 में गणतंत्र दिवस के पथ संचलन में कुछ कांग्रेसियों की आपत्ति के बाद भी संघ के स्वयंसेवकों को भाग लेने हेतु आमंत्रण भिजवाया। कहना न होगा की संघ के तीन हज़ार गणवेषधारी स्वयंसेवकों का घोष की ताल पर कदम मिलाकर चलना उस दिन के कार्यक्रम का एक प्रमुख आकर्षण था।

केशव बलिराम हेडगेवार

जन्म 1 अप्रैल 1889
नागपुर, भारत
मृत्यु जून 21, 1940 (उम्र 51)
नागपुर, भारत
डॉ॰केशवराव बलिरामराव हेडगेवार (मराठी: डॉ॰केशव बळीराम हेडगेवार; जन्म : 1 अप्रैल 1889 - मृत्यु : 21 जून 1940) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक एवं प्रकाण्ड क्रान्तिकारी थे।[1] उनका जन्म हिन्दू वर्ष प्रतिपदा के दिन हुआ था।[2] घर से कलकत्ता गये तो थे डाक्टरी पढने परन्तु वापस आये उग्र क्रान्तिकारी बनकर। कलकत्ते में श्याम सुन्दर चक्रवर्ती के यहाँ रहते हुए बंगाल की गुप्त क्रान्तिकारी संस्था अनुशीलन समिति के सक्रिय सदस्य बन गये। सन् १९१६ के कांग्रेस अधिवेशन में लखनऊ गये। वहाँ संयुक्त प्रान्त (वर्तमान यू०पी०) की युवा टोली के सम्पर्क में आये। बाद में कांग्रेस से मोह भंग हुआ और नागपुर में संघ की स्थापना कर डाली। मृत्युपर्यन्त सन् १९४० तक वे इस संगठन के सर्वेसर्वा रहे।

संक्षिप्त जीवन परिचय संपादित करें

डॉ॰ हेडगेवार का जन्म १ अप्रैल, १८८९ को महाराष्ट्र के नागपुर जिले में पण्डित बलिराम पन्त हेडगेवार के घर हुआ था। इनकी माता का नाम रेवतीबाई था। माता-पिता ने पुत्र का नाम केशव रखा। केशव का बड़े लाड़-प्यार से लालन-पालन होता रहा। उनके दो बड़े भाई भी थे, जिनका नाम महादेव और सीताराम था। पिता बलिराम वेद-शास्त्र के विद्वान थे एवं वैदिक कर्मकाण्ड (पण्डिताई) से परिवार का भरण-पोषण चलाते थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुयायी व आर्य समाज में निष्ठा होने के कारण उन्होंने अग्निहोत्र का व्रत लिया हुआ था। परिवार में नित्य वैदिक रीति से सन्ध्या-हवन होता था।

बडे भाई से प्रेरणा संपादित करें
केशव के सबसे बड़े भाई महादेव भी शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता तो थे ही मल्ल-युद्ध की कला में भी बहुत माहिर थे। वे रोज अखाड़े में जाकर स्वयं तो व्यायाम करते ही थे गली-मुहल्ले के बच्चों को एकत्र करके उन्हें भी कुश्ती के दाँव-पेंच सिखलाते थे। महादेव भारतीय संस्कृति और विचारों का बड़ी सख्ती से पालन करते थे। केशव के मानस-पटल पर बडे भाई महादेव के विचारों का गहरा प्रभाव था। किन्तु वे बडे भाई की अपेक्षा बाल्यकाल से ही क्रान्तिकारी विचारों के थे। जिसका परिणाम यह हुआ कि वे डॉक्टरी पढ़ने के लिये कलकत्ता गये और वहाँ से उन्होंने कलकत्ता मेडिकल कॉलेज से प्रथम श्रेणी में डॉक्टरी की परीक्षा भी उत्तीर्ण की; परन्तु घर वालों की इच्छा के विरुद्ध देश-सेवा के लिए नौकरी का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। डॉक्टरी करते करते ही उनकी तीव्र नेतृत्व प्रतिभा को भांप कर उन्हें हिन्दू महासभा बंगाल प्रदेश का उपाध्यक्ष मनोनीत किया गया l[2]

क्रान्ति का बीजारोपण संपादित करें

कलकत्ते में पढाई करते हुए उनका मेल-मिलाप बंगाल के क्रान्तिकारियों से हुआ। केशव चूँकि कलकत्ता में अपने बडे भाई महादेव के मित्र श्याम सुन्दर चक्रवर्ती[3] के घर रहते थे अत: वहाँ के स्थानीय लोग उन्हें केशव चक्रवर्ती के नाम से ही जानते व सम्बोधित करते थे। उनकी असाधारण योग्यता को मद्देनजर रखते हुए उन्हें पहले अनुशीलन समिति का साधारण सदस्य बनाया गया। उसके बाद जब वे कार्यकुशलता की कसौटी पर खरे उतरे तो उन्हें समिति का अन्तरंग सदस्य भी बना लिया गया। उनकी तीव्र नेतृत्व प्रतिभा को देख कर उन्हें हिन्दू महासभा बंगाल प्रदेश का उपाध्यक्ष भी बनाया गया l इस प्रकार क्रान्तिकारियों की समस्त गतिविधियों का ज्ञान और संगठन-तन्त्र कलकत्ते से सीखकर वे नागपुर लौटे।[1]

कांग्रेस और हिन्दू महासभा में भागीदारी संपादित करें
सन् १९१६ के कांग्रेस अधिवेशन में लखनऊ गये। वहाँ संयुक्त प्रान्त (वर्तमान यू०पी०) की युवा टोली के सम्पर्क में आये। बाद में आपका कांग्रेस से मोह भंग हुआ और नागपुर में संघ की स्थापना कर डाली।

लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद केशव कॉग्रेस और हिन्दू महासभा दोनों में काम करते रहे। गांधीजी के अहिंसक असहयोग आन्दोलन और सविनय अवज्ञा आन्दोलनों में भाग लिया, परन्तु ख़िलाफ़त आंदोलन की जमकर आलोचना की। ये गिरफ्तार भी हुए और सन् १९२२ में जेल से छूटे। नागपुर में १९२३ के दंगों के दौरान इन्होंने डॉक्टर मुंजे के साथ सक्रिय सहयोग किया। अगले साल सावरकर के पत्र हिन्दुत्व का संस्करण निकला जिसमें इनका योगदान भी था। इसकी मूल पांडुलिपि इन्हीं के पास थी[4]।

व्यक्तित्व व कृतित्व संपादित करें

१९२१ ई. में अंग्रेजो ने तुर्की को परास्त कर, वहां के सुल्तान को गद्दी से उतार दिया था, वही सुल्तान मुसलमानों के खलीफा/मुखिया भी कहलाते थे, ये बात भारत व अन्य मुस्लिम देशों के मुसलमानों को नागवार गुजरी जिससे जगह-जगह आन्दोलन हुए l हिन्दुस्थान में खासकर केरल के मालाबार जिले में आन्दोलन ने उग्र रूप ले लिया l

१९२२ ई. में भारत के राजनीतिक पटल पर गांधी के आने के पश्चात ही मुस्लिम सांप्रदायिकता ने अपना सिर उठाना प्रारंभ कर दिया। खिलाफत आंदोलन को गांधी जी का सहयोग प्राप्त था - तत्पश्चात नागपुर व अन्य कई स्थानों पर हिन्दू, मुस्लिम दंगे प्रारंभ हो गये तथा नागपुर के कुछ हिन्दू नेताओं ने समझ लिया कि हिन्दू एकता ही उनकी सुरक्षा कर सकती है। ऐसी स्थिति में कई हिंदू नेता केरल की स्थिती जानने एवं वहां के लूटे पिटे हिंदुओं की सहायता के लिए मालाबार-केरल गये, इनमें नागपुर के प्रमुख हिंदू महासभाई नेता डॉ॰ बालकृष्ण शिवराम मुंजे, डॉ॰ हेडगेवार, आर्य समाज के नेता स्वामी श्रद्धानंद जी आदि थे, उसके थोड़े समय बाद नागपुर तथा अन्य कई शहरों में भी हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए l ऐसी घटनाओं से विचलित होकर नागपुर में डॉ॰ मुंजे ने कुछ प्रसिद्ध हिंदू नेताओं की बैठक बुलाई, जिनमें डॉ॰ हेडगेवार एवं डॉ॰ परांजपे भी थे, इस बैठक में उन्होंने एक हिंदू-मिलीशिया बनाने का निर्णय लिया, उद्देश्य था “हिंदुओं की रक्षा करना एवं हिन्दुस्थान को एक सशक्त हिंदू राष्ट्र बनाना”l इस मिलीशिया को खड़े करने की जिम्मेवारी धर्मवीर डॉ॰ मुंजे ने डॉ॰ केशव बलीराम हेडगेवार को दी l

डॉ॰साहब ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने व्यक्ति की क्षमताओं को उभारने के लिये नये-नये तौर-तरीके विकसित किये। हालांकि प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की असफल क्रान्ति और तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने एक अर्ध-सैनिक संगठन की नींव रखी। इस प्रकार 28/9/1925 (विजयदशमी दिवस) को अपने पिता-तुल्य गुरु डॉ॰ बालकृष्ण शिवराम मुंजे, उनके शिष्य डॉ॰ हेडगेवार, श्री परांजपे और बापू साहिब सोनी ने एक हिन्दू युवक क्लब की नींव डाली, जिसका नाम कालांतर में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ दिया गया l

यहाँ पर उल्लेखनीय है कि इस मिलीशिया का आधार बना - वीर सावरकर का राष्ट्र दर्शन ग्रन्थ (हिंदुत्व) जिसमे हिंदू की परिभाषा यह की गई थी- आ सिंधु-सिंधु पर्यन्ता, यस्य भारत भूमिका l पितृभू-पुण्यभू भुश्चेव सा वै हिंदू रीती स्मृता ll

इस श्लोक के अनुसार “भारत के वह सभी लोग हिंदू हैं जो इस देश को पितृभूमि-पुण्यभूमि मानते हैं”l इनमे सनातनी, आर्यसमाजी, जैन, बौद्ध, सिख आदि पंथों एवं धर्म विचार को मानने वाले व उनका आचरण करने वाले समस्त जन को हिंदू के व्यापक दायरे में रखा गया था l मुसलमान व ईसाई इस परिभाषा में नहीं आते थे अतः उनको इस मिलीशिया में ना लेने का निर्णय लिया गया और केवल हिंदुओं को ही लिया जाना तय हुआ, मुख्य मन्त्र था “अस्पष्टता निवारण एवं हिंदुओं का सैनिकी कारण”l

ऐसी मिलीशिया को खड़ा करने के लिए स्वंयसेवको की भर्ती की जाने लगी, सुबह व शाम एक-एक घंटे की शाखायें लगाई जाने लगी| इसे सुचारू रूप से चलाने के लिए शिक्षक, मुख्य शिक्षक, घटनायक आदि पदों का सृजन किया गया l इन शाखाओं में व्यायाम, शारीरिक श्रम, हिंदू राष्ट्रवाद की शिक्षा के साथ- साथ वरिष्ठ स्वंयसेवकों को सैनिक शिक्षा भी दी जानी तय हुई l बाद में यदा कदा रात के समय स्वंयसेवकों की गोष्ठीयां भी होती थी, जिनमें महराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह, बंदा बैरागी, वीर सावरकर, मंगल पांडे, तांत्या टोपे आदि की जीवनियाँ भी पढ़ी जाती थीं l वीर सावरकर द्वारा रचित पुस्तक (हिंदुत्व) के अंश भी पढ़ कर सुनाये जाते थे l

थोड़े समय बाद इस मिलीशिया को नाम दिया गया राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ- जो आर.एस.एस. के नाम से प्रसिद्ध हुआ l प्रार्थना भी मराठी की बजाय संस्कृत भाषा में होने लगी l वरिष्ठ स्वंयसेवकों के लिए ओ.टी.सी. कैम्प लगाये जाने लगे, जहाँ उन्हें अर्धसैनिक शिक्षा भी दी जाने लगी l इन सब कार्यों के लिए एक अवकाश प्राप्त सैनिक अधिकारी श्री मारतंडे राव जोग की सेवाएं ली गईं l सन् १९३५-३६ तक ऐसी शाखाएं केवल महाराष्ट्र तक ही सीमित थी और इसके स्वंयसेवकों की संख्या कुछ हज़ार तक ही थी, पर सरसंघचालक और स्वंयसेवकों का उत्साह देखने लायक था l स्वयं डॉ॰ हेडगेवार इतने उत्साहित थे कि अपने एक उदबोधन में उन्होंने कहा की:-

“संघ के जन्मकाल के समय की परिस्थिति बड़ी विचित्र सी थी, हिंदुओं का हिन्दुस्थान कहना उस समय निरा पागलपन समझा जाता था और किसी संगठन को हिंदू संगठन कहना देश द्रोह तक घोषित कर दिया जाता था” l (राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ तत्व और व्यवहार पृष्ठ ६४)

डॉ॰ हेडगेवार ने जिस दुखद स्थिति को व्यक्त किया, उसमें नवसर्जित राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और हिंदू महासभा के नेतृत्व के प्रयास से- हिंदू युवाओं में साहस के साथ यह नारा गूंजने लगा “हिन्दुस्थान हिंदुओं का- नहीं किसी के बाप का” इस कथन की विवेचना डॉ॰ हेडगेवार ने इन शब्दों में की:-

“कई सज्जन यह कहते हुए भी नहीं हिचकिचाते की हिन्दुस्थान केवल हिन्दुओ का ही कैसे? यह तो उन सभी लोगों का है जो यहाँ बसते हैं l खेद है की इस प्रकार का कथन/आक्षेप करने वाले सज्जनों को राष्ट्र शब्द का अर्थ ही ज्ञात नहीं l केवल भूमि के किसी टुकड़े को राष्ट्र नहीं कहते l एक विचार-एक आचार-एक सभ्यता एवं परम्परा में जो लोग पुरातन काल से रहते चले आए हैं उन्हीं लोगों की संस्कृति से राष्ट्र बनता है l इस देश को हमारे ही कारण हिन्दुस्थान नाम दिया गया है l दूसरे लोग यदि समोपचार से इस देश में बसना चाहते हैं तो अवश्य बस सकते हैं l हमने उन्हें न कभी मना किया है न करेंगे l किंतु जो हमारे घर अतिथि बन कर आते हैं और हमारे ही गले पर छुरी फेरने पर उतारू हो जाते हैं उनके लिए यहाँ रत्ती भर भी स्थान नहीं मिलेगा l संघ की इस विचारधारा को पहले आप ठीक ठाक समझ लीजिए l” (राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पृष्ठ १४)

एक अन्य अवसर पर डॉ॰ हेडगेवार ने कहा था “संघ तो केवल, हिन्दुस्थान हिंदुओं का- इस ध्येय वाक्य को सच्चा कर दिखाना चाहता है l” दूसरे देशों के सामान, “यह हिंदुओं का होने के कारण”- इस देश में हिंदू जो कहेंगे वही पूर्व दिशा होगी (अर्थात वही सही माना जाएगा) l यही एक बात है जो संघ जानता है, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के कार्यकर्ताओं के लिए किसी भी अन्य पचड़े में पड़ने की आवश्कता नहीं है l”(तदैव पृष्ठ ३८)

जब वीर सावरकर रत्नागिरी में दृष्टि बंद (नजरबंद) थे, तब डॉ॰ हेडगेवार वहां उनसे मिलने गये। तब तक वह वीर सावरकर रचित पुस्तक हिन्दुत्व भी पढ़ चुके थे। डॉ॰ हेडगेवार उस पुस्तक के विचारों से बहुत प्रभावित हुए और उसकी सराहना करते हुए बोले कि “वीर सावरकर एक आदर्श व्यक्ति है”।

दोनों (सावरकर एवं हेडगेवार) का विश्वास था कि जब तक हिन्दू अंध विश्वास, पुरानी रूढ़िवादी सोच, धार्मिक आडम्बरों को नहीं छोडेंगे तब तक हिन्दू-जातीवाद, छूत-अछूत, शहरी-बनवासी और छेत्रवाद इत्यादि में बंटा रहेगा और जब तक वह संगठित एवं एक जुट नही होगा, तब तक वह संसार में अपना उचित स्थान नही ले सकेगा।

सन् 1937 में वीर सावरकर की दृष्टिबंदी (नजरबंदी) समाप्त हो गयी और उसके बाद वे राजनीति में भाग ले सकते थे। उसी वर्ष वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये जिसके उपाध्यक्ष डॉ॰ हेडगेवार थे। 1937 में हिन्दू महासभा का अधिवेशन कर्णावती (अहमदाबाद) में हुआ। इस अधिवेशन में वीर सावरकर के अध्यक्षीय भाषण को “हिन्दू राष्ट्र दर्शन” के नाम से जाना जाता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापकों में से दो मुख्य व्यक्ति डॉ॰ मुंजे एवं डॉ॰ हेडगेवार हिन्दू महासभाई थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने वीर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिन्दू एवं हिन्दू राष्ट्रवाद की व्याख्या को ही अपना आधार बनाया था, साथ ही वीर सावरकर के मूलमंत्र- अस्पर्श्यता निवारण और हिन्दुओं के सैनिकीकरण आदि सिद्धांत को मान्य किया था l

इसी परिपेक्ष्य में हिन्दू महासभा ने भी उस समय एक प्रस्ताव पास कर अपने कार्यकर्ताओ एवं सदस्यों को निर्देश दिया कि वे अपने बच्चों को संघ की शाखा में भेजें एवं संघ के विस्तार में सहयोग दें। आर.एस.एस. की विस्तार योजना के अनुसार उसके नागपुर कार्यालय से बड़ी संख्या में युवक, दो जोड़ी धोती एवं कुर्ता ले कर संघ शाखाओ की स्थापना हेतु दिल्ली, लाहौर, पेशावर, क्वेटा, मद्रास, गुवाहाटी आदि विभिन्न शहरों में भेजे गये।

दिल्ली में पहली शाखा हिन्दू महासभा भवन, मंदिर मार्ग नयी दिल्ली के प्रांगण में हिन्दू सभाई नेता प्राध्यापक राम सिंह की देख रेख में श्री बसंत राव ओक द्वारा संचालित की गयी। लाहौर में शाखा हिन्दू महासभा के प्रसिद्द नेता डॉ॰ गोकुल चंद नारंग की कोठी में लगायी जाती थी, जिसका संचालन श्री मुले जी एवं धर्मवीर जी (जो महान हिन्दू सभाई नेता देवता स्वरुप भाई परमानन्द जी के दामाद थे) द्वारा किया जाता था। पेशावर में आर.एस.एस. की शाखा सदर बाजार से सटी गली के अंदर हिन्दू महासभा कार्यालय में लगायी जाती थी जिसकी देख रेख श्री मेहर चंद जी खन्ना- तत्कालिक सचिव हिन्दू महासभा करते थे।

वीर सावरकर के बड़े भाई श्री बाबाराव सावरकर ने अपने युवा संघ जिसके उस समय लगभग 8,000 सदस्य थे ने, उस संगठन को आर.एस.एस. में विलय कर दिया। वीर सावरकर के मित्र एवं हजारों ईसाईयों को शुद्धि द्वारा दोबारा हिन्दू धर्म में लाने वाले संत पान्च्लेगाँवकर ने उस समय अपने 5,000 सदस्यों वाले संगठन “मुक्तेश्वर दल” को भी आर.एस.एस. में विलय करा दिया। उद्देश्य था कि हिन्दुओ का एक ही युवा शक्तिशाली संगठन हो। इस प्रकार संघ की नीतियों, पर हिंदू महासभा व वीर सावरकर के हिन्दुवाद का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था l

इस तरह डॉ॰ हेडगेवार के कुशल निर्देशन, हिन्दू महासभा के सहयोग एवं नागपुर से भेजे गये प्रचारकों के अथक परिश्रम एवं तपस्या के कारण संघ का विस्तार होता गया और 1946 के आते-आते संघ के युवा स्वयंसेवकों की संख्या करीब सात लाख हो गयी। उन प्रचारको की लगन सराहनीय थी। इनके पास महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, बन्दा बैरागी की जीवनी की छोटी छोटी पुस्तके एवं वीर सावरकर द्वारा रचित पुस्तक हिंदुत्व रहती थी।

1938 में वीर सावरकर दूसरी बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये और यह अधिवेशन नागपुर में रखा गया। इस अधिवेशन का उत्तरदायित्व पूरी तरह से आर.एस.एस. के स्वयंसेवको द्वारा उठाया गया। इसका नेतृत्व उनके मुखिया डॉ॰ हेडगेवार ने किया था। उन्होंने उस अवसर पर वीर सावरकर के लिए असीम श्रद्धा जताई। पूरे नागपुर शहर में एक विशाल जलूस निकाला गया, जिसमे आगे-आगे श्री भाऊराव देवरस जो आर.एस.एस. के उच्चतम श्रेणी के स्वयंसेवक थे, वे हाथी पर अपने हाथ में भगवा ध्वज ले कर चल रहे थे।

हैदराबाद (दक्षिण) के मुस्लिम शासक निजाम ने वहाँ के हिन्दुओ का जीना दूभर कर रखा था। यहाँ तक कि कोई हिन्दू मंदिर नहीं बना सकता था और यज्ञ आदि करने पर भी प्रतिबन्ध था। 1938 में आर्य समाज ने निजाम हैदराबाद के जिहादी आदेशो के विरुद्ध आन्दोलन करने की ठानी। गाँधीजी ने आर्य समाज को आन्दोलन ना करने की सलाह दी। वीर सावरकर ने कहा कि अगर आर्य समाज आन्दोलन छेड़ता है तो हिन्दू महासभा उसे पूरा-पूरा समर्थन देगी।

आंदोलन चला, लगभग 25,000 सत्याग्रही देश के विभिन्न भागों से आये। निजाम की पुलिस और वहाँ के रजाकारो द्वारा उन सत्याग्रहियों की जेल में बेदर्दी से पिटाई की जाती थी। बीसियों सत्याग्रहियों की रजाकारों की निर्मम पिटाई से मृत्यु तक हो गयी। इन सत्याग्रहियों में लगभग 12,000 हिन्दू महासभाई थे। वीर सावरकर ने स्वयं पूना जा कर कई जत्थे हैदराबाद भिजवाये। पूना से सबसे बड़ा जत्था हुतात्मा नाथूराम गोडसे के नेतृत्व में हैदराबाद भिजवाया, इनमे हिन्दू महासभा कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त संघ के भी कई स्वयंसेवक थे। इस तरह 1940 तक- जब तक डॉ॰ हेडगेवार जीवित थे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्दू महासभा का युवा संगठन ही माना जाता था।

धर्मवीर डाक्टर मुंजे और वीर सावरकर के सान्निध्य में डाक्टर हेडगेवार ने भारत की गुलामी के कारणों को बडी बारीकी से पहचाना और इसके स्थाई समाधान हेतु संघ कार्य प्रारम्भ किया। इन्होंने सदैव यही बताने का प्रयास किया कि नई चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें नये तरीकों से काम करना पड़ेगा और स्वयं को बदलना होगा,

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापकों में से दो मुख्य व्यक्ति डॉ॰ मुंजे एवं डॉ॰ हेडगेवार हिन्दू महासभाई थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने वीर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिन्दू एवं हिन्दू राष्ट्रवाद की व्याख्या को ही अपना आधार बनाया था, साथ ही वीर सावरकर के मूलमंत्र- अस्पर्श्यता निवारण और हिन्दुओं के सैनिकीकरण आदि सिद्धांत को मान्य किया था l

इसी परिपेक्ष्य में हिन्दू महासभा ने भी उस समय एक प्रस्ताव पास कर अपने कार्यकर्ताओ एवं सदस्यों को निर्देश दिया कि वे अपने बच्चों को संघ की शाखा में भेजें एवं संघ के विस्तार में सहयोग दें। आर.एस.एस. की विस्तार योजना के अनुसार उसके नागपुर कार्यालय से बड़ी संख्या में युवक, दो जोड़ी धोती एवं कुर्ता ले कर संघ शाखाओ की स्थापना हेतु दिल्ली, लाहौर, पेशावर, क्वेटा, मद्रास, गुवाहाटी आदि विभिन्न शहरों में भेजे गये।

दिल्ली में पहली शाखा हिन्दू महासभा भवन, मंदिर मार्ग नयी दिल्ली के प्रांगण में हिन्दू सभाई नेता प्राध्यापक राम सिंह की देख रेख में श्री बसंत राव ओक द्वारा संचालित की गयी। लाहौर में शाखा हिन्दू महासभा के प्रसिद्द नेता डॉ॰ गोकुल चंद नारंग की कोठी में लगायी जाती थी, जिसका संचालन श्री मुले जी एवं धर्मवीर जी (जो महान हिन्दू सभाई नेता देवता स्वरुप भाई परमानन्द जी के दामाद थे) द्वारा किया जाता था। पेशावर में आर.एस.एस. की शाखा सदर बाजार से सटी गली के अंदर हिन्दू महासभा कार्यालय में लगायी जाती थी जिसकी देख रेख श्री मेहर चंद जी खन्ना- तत्कालिक सचिव हिन्दू महासभा करते थे।

वीर सावरकर के बड़े भाई श्री बाबाराव सावरकर ने अपने युवा संघ जिसके उस समय लगभग 8,000 सदस्य थे ने, उस संगठन को आर.एस.एस. में विलय कर दिया। वीर सावरकर के मित्र एवं हजारों ईसाईयों को शुद्धि द्वारा दोबारा हिन्दू धर्म में लाने वाले संत पान्च्लेगाँवकर ने उस समय अपने 5,000 सदस्यों वाले संगठन “मुक्तेश्वर दल” को भी आर.एस.एस. में विलय करा दिया। उद्देश्य था कि हिन्दुओ का एक ही युवा शक्तिशाली संगठन हो। इस प्रकार संघ की नीतियों, पर हिंदू महासभा व वीर सावरकर के हिन्दुवाद का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था l

इस तरह डॉ॰ हेडगेवार के कुशल निर्देशन, हिन्दू महासभा के सहयोग एवं नागपुर से भेजे गये प्रचारकों के अथक परिश्रम एवं तपस्या के कारण संघ का विस्तार होता गया और 1946 के आते-आते संघ के युवा स्वयंसेवकों की संख्या करीब सात लाख हो गयी। उन प्रचारको की लगन सराहनीय थी। इनके पास महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, बन्दा बैरागी की जीवनी की छोटी छोटी पुस्तके एवं वीर सावरकर द्वारा रचित पुस्तक हिंदुत्व रहती थी।

1938 में वीर सावरकर दूसरी बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये और यह अधिवेशन नागपुर में रखा गया। इस अधिवेशन का उत्तरदायित्व पूरी तरह से आर.एस.एस. के स्वयंसेवको द्वारा उठाया गया। इसका नेतृत्व उनके मुखिया डॉ॰ हेडगेवार ने किया था। उन्होंने उस अवसर पर वीर सावरकर के लिए असीम श्रद्धा जताई। पूरे नागपुर शहर में एक विशाल जलूस निकाला गया, जिसमे आगे-आगे श्री भाऊराव देवरस जो आर.एस.एस. के उच्चतम श्रेणी के स्वयंसेवक थे, वे हाथी पर अपने हाथ में भगवा ध्वज ले कर चल रहे थे।

हैदराबाद (दक्षिण) के मुस्लिम शासक निजाम ने वहाँ के हिन्दुओ का जीना दूभर कर रखा था। यहाँ तक कि कोई हिन्दू मंदिर नहीं बना सकता था और यज्ञ आदि करने पर भी प्रतिबन्ध था। 1938 में आर्य समाज ने निजाम हैदराबाद के जिहादी आदेशो के विरुद्ध आन्दोलन करने की ठानी। गाँधीजी ने आर्य समाज को आन्दोलन ना करने की सलाह दी। वीर सावरकर ने कहा कि अगर आर्य समाज आन्दोलन छेड़ता है तो हिन्दू महासभा उसे पूरा-पूरा समर्थन देगी।

आंदोलन चला, लगभग 25,000 सत्याग्रही देश के विभिन्न भागों से आये। निजाम की पुलिस और वहाँ के रजाकारो द्वारा उन सत्याग्रहियों की जेल में बेदर्दी से पिटाई की जाती थी। बीसियों सत्याग्रहियों की रजाकारों की निर्मम पिटाई से मृत्यु तक हो गयी। इन सत्याग्रहियों में लगभग 12,000 हिन्दू महासभाई थे। वीर सावरकर ने स्वयं पूना जा कर कई जत्थे हैदराबाद भिजवाये। पूना से सबसे बड़ा जत्था हुतात्मा नाथूराम गोडसे के नेतृत्व में हैदराबाद भिजवाया, इनमे हिन्दू महासभा कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त संघ के भी कई स्वयंसेवक थे। इस तरह 1940 तक- जब तक डॉ॰ हेडगेवार जीवित थे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्दू महासभा का युवा संगठन ही माना जाता था।

धर्मवीर डाक्टर मुंजे और वीर सावरकर के सान्निध्य में डाक्टर हेडगेवार ने भारत की गुलामी के कारणों को बडी बारीकी से पहचाना और इसके स्थाई समाधान हेतु संघ कार्य प्रारम्भ किया। इन्होंने सदैव यही बताने का प्रयास किया कि नई चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें नये तरीकों से काम करना पड़ेगा और स्वयं को बदलना होगा,

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापकों में से दो मुख्य व्यक्ति डॉ॰ मुंजे एवं डॉ॰ हेडगेवार हिन्दू महासभाई थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने वीर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिन्दू एवं हिन्दू राष्ट्रवाद की व्याख्या को ही अपना आधार बनाया था, साथ ही वीर सावरकर के मूलमंत्र- अस्पर्श्यता निवारण और हिन्दुओं के सैनिकीकरण आदि सिद्धांत को मान्य किया था l

इसी परिपेक्ष्य में हिन्दू महासभा ने भी उस समय एक प्रस्ताव पास कर अपने कार्यकर्ताओ एवं सदस्यों को निर्देश दिया कि वे अपने बच्चों को संघ की शाखा में भेजें एवं संघ के विस्तार में सहयोग दें। आर.एस.एस. की विस्तार योजना के अनुसार उसके नागपुर कार्यालय से बड़ी संख्या में युवक, दो जोड़ी धोती एवं कुर्ता ले कर संघ शाखाओ की स्थापना हेतु दिल्ली, लाहौर, पेशावर, क्वेटा, मद्रास, गुवाहाटी आदि विभिन्न शहरों में भेजे गये।

दिल्ली में पहली शाखा हिन्दू महासभा भवन, मंदिर मार्ग नयी दिल्ली के प्रांगण में हिन्दू सभाई नेता प्राध्यापक राम सिंह की देख रेख में श्री बसंत राव ओक द्वारा संचालित की गयी। लाहौर में शाखा हिन्दू महासभा के प्रसिद्द नेता डॉ॰ गोकुल चंद नारंग की कोठी में लगायी जाती थी, जिसका संचालन श्री मुले जी एवं धर्मवीर जी (जो महान हिन्दू सभाई नेता देवता स्वरुप भाई परमानन्द जी के दामाद थे) द्वारा किया जाता था। पेशावर में आर.एस.एस. की शाखा सदर बाजार से सटी गली के अंदर हिन्दू महासभा कार्यालय में लगायी जाती थी जिसकी देख रेख श्री मेहर चंद जी खन्ना- तत्कालिक सचिव हिन्दू महासभा करते थे।

वीर सावरकर के बड़े भाई श्री बाबाराव सावरकर ने अपने युवा संघ जिसके उस समय लगभग 8,000 सदस्य थे ने, उस संगठन को आर.एस.एस. में विलय कर दिया। वीर सावरकर के मित्र एवं हजारों ईसाईयों को शुद्धि द्वारा दोबारा हिन्दू धर्म में लाने वाले संत पान्च्लेगाँवकर ने उस समय अपने 5,000 सदस्यों वाले संगठन “मुक्तेश्वर दल” को भी आर.एस.एस. में विलय करा दिया। उद्देश्य था कि हिन्दुओ का एक ही युवा शक्तिशाली संगठन हो। इस प्रकार संघ की नीतियों, पर हिंदू महासभा व वीर सावरकर के हिन्दुवाद का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था l

इस तरह डॉ॰ हेडगेवार के कुशल निर्देशन, हिन्दू महासभा के सहयोग एवं नागपुर से भेजे गये प्रचारकों के अथक परिश्रम एवं तपस्या के कारण संघ का विस्तार होता गया और 1946 के आते-आते संघ के युवा स्वयंसेवकों की संख्या करीब सात लाख हो गयी। उन प्रचारको की लगन सराहनीय थी। इनके पास महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, बन्दा बैरागी की जीवनी की छोटी छोटी पुस्तके एवं वीर सावरकर द्वारा रचित पुस्तक हिंदुत्व रहती थी।

1938 में वीर सावरकर दूसरी बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये और यह अधिवेशन नागपुर में रखा गया। इस अधिवेशन का उत्तरदायित्व पूरी तरह से आर.एस.एस. के स्वयंसेवको द्वारा उठाया गया। इसका नेतृत्व उनके मुखिया डॉ॰ हेडगेवार ने किया था। उन्होंने उस अवसर पर वीर सावरकर के लिए असीम श्रद्धा जताई। पूरे नागपुर शहर में एक विशाल जलूस निकाला गया, जिसमे आगे-आगे श्री भाऊराव देवरस जो आर.एस.एस. के उच्चतम श्रेणी के स्वयंसेवक थे, वे हाथी पर अपने हाथ में भगवा ध्वज ले कर चल रहे थे।

हैदराबाद (दक्षिण) के मुस्लिम शासक निजाम ने वहाँ के हिन्दुओ का जीना दूभर कर रखा था। यहाँ तक कि कोई हिन्दू मंदिर नहीं बना सकता था और यज्ञ आदि करने पर भी प्रतिबन्ध था। 1938 में आर्य समाज ने निजाम हैदराबाद के जिहादी आदेशो के विरुद्ध आन्दोलन करने की ठानी। गाँधीजी ने आर्य समाज को आन्दोलन ना करने की सलाह दी। वीर सावरकर ने कहा कि अगर आर्य समाज आन्दोलन छेड़ता है तो हिन्दू महासभा उसे पूरा-पूरा समर्थन देगी।

आंदोलन चला, लगभग 25,000 सत्याग्रही देश के विभिन्न भागों से आये। निजाम की पुलिस और वहाँ के रजाकारो द्वारा उन सत्याग्रहियों की जेल में बेदर्दी से पिटाई की जाती थी। बीसियों सत्याग्रहियों की रजाकारों की निर्मम पिटाई से मृत्यु तक हो गयी। इन सत्याग्रहियों में लगभग 12,000 हिन्दू महासभाई थे। वीर सावरकर ने स्वयं पूना जा कर कई जत्थे हैदराबाद भिजवाये। पूना से सबसे बड़ा जत्था हुतात्मा नाथूराम गोडसे के नेतृत्व में हैदराबाद भिजवाया, इनमे हिन्दू महासभा कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त संघ के भी कई स्वयंसेवक थे। इस तरह 1940 तक- जब तक डॉ॰ हेडगेवार जीवित थे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्दू महासभा का युवा संगठन ही माना जाता था।

धर्मवीर डाक्टर मुंजे और वीर सावरकर के सान्निध्य में डाक्टर हेडगेवार ने भारत की गुलामी के कारणों को बडी बारीकी से पहचाना और इसके स्थाई समाधान हेतु संघ कार्य प्रारम्भ किया। इन्होंने सदैव यही बताने का प्रयास किया कि नई चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें नये तरीकों से काम करना पड़ेगा और स्वयं को बदलना होगा,

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापकों में से दो मुख्य व्यक्ति डॉ॰ मुंजे एवं डॉ॰ हेडगेवार हिन्दू महासभाई थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने वीर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिन्दू एवं हिन्दू राष्ट्रवाद की व्याख्या को ही अपना आधार बनाया था, साथ ही वीर सावरकर के मूलमंत्र- अस्पर्श्यता निवारण और हिन्दुओं के सैनिकीकरण आदि सिद्धांत को मान्य किया था l

इसी परिपेक्ष्य में हिन्दू महासभा ने भी उस समय एक प्रस्ताव पास कर अपने कार्यकर्ताओ एवं सदस्यों को निर्देश दिया कि वे अपने बच्चों को संघ की शाखा में भेजें एवं संघ के विस्तार में सहयोग दें। आर.एस.एस. की विस्तार योजना के अनुसार उसके नागपुर कार्यालय से बड़ी संख्या में युवक, दो जोड़ी धोती एवं कुर्ता ले कर संघ शाखाओ की स्थापना हेतु दिल्ली, लाहौर, पेशावर, क्वेटा, मद्रास, गुवाहाटी आदि विभिन्न शहरों में भेजे गये।

दिल्ली में पहली शाखा हिन्दू महासभा भवन, मंदिर मार्ग नयी दिल्ली के प्रांगण में हिन्दू सभाई नेता प्राध्यापक राम सिंह की देख रेख में श्री बसंत राव ओक द्वारा संचालित की गयी। लाहौर में शाखा हिन्दू महासभा के प्रसिद्द नेता डॉ॰ गोकुल चंद नारंग की कोठी में लगायी जाती थी, जिसका संचालन श्री मुले जी एवं धर्मवीर जी (जो महान हिन्दू सभाई नेता देवता स्वरुप भाई परमानन्द जी के दामाद थे) द्वारा किया जाता था। पेशावर में आर.एस.एस. की शाखा सदर बाजार से सटी गली के अंदर हिन्दू महासभा कार्यालय में लगायी जाती थी जिसकी देख रेख श्री मेहर चंद जी खन्ना- तत्कालिक सचिव हिन्दू महासभा करते थे।

वीर सावरकर के बड़े भाई श्री बाबाराव सावरकर ने अपने युवा संघ जिसके उस समय लगभग 8,000 सदस्य थे ने, उस संगठन को आर.एस.एस. में विलय कर दिया। वीर सावरकर के मित्र एवं हजारों ईसाईयों को शुद्धि द्वारा दोबारा हिन्दू धर्म में लाने वाले संत पान्च्लेगाँवकर ने उस समय अपने 5,000 सदस्यों वाले संगठन “मुक्तेश्वर दल” को भी आर.एस.एस. में विलय करा दिया। उद्देश्य था कि हिन्दुओ का एक ही युवा शक्तिशाली संगठन हो। इस प्रकार संघ की नीतियों, पर हिंदू महासभा व वीर सावरकर के हिन्दुवाद का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था l

इस तरह डॉ॰ हेडगेवार के कुशल निर्देशन, हिन्दू महासभा के सहयोग एवं नागपुर से भेजे गये प्रचारकों के अथक परिश्रम एवं तपस्या के कारण संघ का विस्तार होता गया और 1946 के आते-आते संघ के युवा स्वयंसेवकों की संख्या करीब सात लाख हो गयी। उन प्रचारको की लगन सराहनीय थी। इनके पास महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, बन्दा बैरागी की जीवनी की छोटी छोटी पुस्तके एवं वीर सावरकर द्वारा रचित पुस्तक हिंदुत्व रहती थी।

1938 में वीर सावरकर दूसरी बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये और यह अधिवेशन नागपुर में रखा गया। इस अधिवेशन का उत्तरदायित्व पूरी तरह से आर.एस.एस. के स्वयंसेवको द्वारा उठाया गया। इसका नेतृत्व उनके मुखिया डॉ॰ हेडगेवार ने किया था। उन्होंने उस अवसर पर वीर सावरकर के लिए असीम श्रद्धा जताई। पूरे नागपुर शहर में एक विशाल जलूस निकाला गया, जिसमे आगे-आगे श्री भाऊराव देवरस जो आर.एस.एस. के उच्चतम श्रेणी के स्वयंसेवक थे, वे हाथी पर अपने हाथ में भगवा ध्वज ले कर चल रहे थे।

हैदराबाद (दक्षिण) के मुस्लिम शासक निजाम ने वहाँ के हिन्दुओ का जीना दूभर कर रखा था। यहाँ तक कि कोई हिन्दू मंदिर नहीं बना सकता था और यज्ञ आदि करने पर भी प्रतिबन्ध था। 1938 में आर्य समाज ने निजाम हैदराबाद के जिहादी आदेशो के विरुद्ध आन्दोलन करने की ठानी। गाँधीजी ने आर्य समाज को आन्दोलन ना करने की सलाह दी। वीर सावरकर ने कहा कि अगर आर्य समाज आन्दोलन छेड़ता है तो हिन्दू महासभा उसे पूरा-पूरा समर्थन देगी।

आंदोलन चला, लगभग 25,000 सत्याग्रही देश के विभिन्न भागों से आये। निजाम की पुलिस और वहाँ के रजाकारो द्वारा उन सत्याग्रहियों की जेल में बेदर्दी से पिटाई की जाती थी। बीसियों सत्याग्रहियों की रजाकारों की निर्मम पिटाई से मृत्यु तक हो गयी। इन सत्याग्रहियों में लगभग 12,000 हिन्दू महासभाई थे। वीर सावरकर ने स्वयं पूना जा कर कई जत्थे हैदराबाद भिजवाये। पूना से सबसे बड़ा जत्था हुतात्मा नाथूराम गोडसे के नेतृत्व में हैदराबाद भिजवाया, इनमे हिन्दू महासभा कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त संघ के भी कई स्वयंसेवक थे। इस तरह 1940 तक- जब तक डॉ॰ हेडगेवार जीवित थे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्दू महासभा का युवा संगठन ही माना जाता था।

धर्मवीर डाक्टर मुंजे और वीर सावरकर के सान्निध्य में डाक्टर हेडगेवार ने भारत की गुलामी के कारणों को बडी बारीकी से पहचाना और इसके स्थाई समाधान हेतु संघ कार्य प्रारम्भ किया। इन्होंने सदैव यही बताने का प्रयास किया कि नई चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें नये तरीकों से काम करना पड़ेगा और स्वयं को बदलना होगा,

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापकों में से दो मुख्य व्यक्ति डॉ॰ मुंजे एवं डॉ॰ हेडगेवार हिन्दू महासभाई थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने वीर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिन्दू एवं हिन्दू राष्ट्रवाद की व्याख्या को ही अपना आधार बनाया था, साथ ही वीर सावरकर के मूलमंत्र- अस्पर्श्यता निवारण और हिन्दुओं के सैनिकीकरण आदि सिद्धांत को मान्य किया था l

इसी परिपेक्ष्य में हिन्दू महासभा ने भी उस समय एक प्रस्ताव पास कर अपने कार्यकर्ताओ एवं सदस्यों को निर्देश दिया कि वे अपने बच्चों को संघ की शाखा में भेजें एवं संघ के विस्तार में सहयोग दें। आर.एस.एस. की विस्तार योजना के अनुसार उसके नागपुर कार्यालय से बड़ी संख्या में युवक, दो जोड़ी धोती एवं कुर्ता ले कर संघ शाखाओ की स्थापना हेतु दिल्ली, लाहौर, पेशावर, क्वेटा, मद्रास, गुवाहाटी आदि विभिन्न शहरों में भेजे गये।

दिल्ली में पहली शाखा हिन्दू महासभा भवन, मंदिर मार्ग नयी दिल्ली के प्रांगण में हिन्दू सभाई नेता प्राध्यापक राम सिंह की देख रेख में श्री बसंत राव ओक द्वारा संचालित की गयी। लाहौर में शाखा हिन्दू महासभा के प्रसिद्द नेता डॉ॰ गोकुल चंद नारंग की कोठी में लगायी जाती थी, जिसका संचालन श्री मुले जी एवं धर्मवीर जी (जो महान हिन्दू सभाई नेता देवता स्वरुप भाई परमानन्द जी के दामाद थे) द्वारा किया जाता था। पेशावर में आर.एस.एस. की शाखा सदर बाजार से सटी गली के अंदर हिन्दू महासभा कार्यालय में लगायी जाती थी जिसकी देख रेख श्री मेहर चंद जी खन्ना- तत्कालिक सचिव हिन्दू महासभा करते थे।

वीर सावरकर के बड़े भाई श्री बाबाराव सावरकर ने अपने युवा संघ जिसके उस समय लगभग 8,000 सदस्य थे ने, उस संगठन को आर.एस.एस. में विलय कर दिया। वीर सावरकर के मित्र एवं हजारों ईसाईयों को शुद्धि द्वारा दोबारा हिन्दू धर्म में लाने वाले संत पान्च्लेगाँवकर ने उस समय अपने 5,000 सदस्यों वाले संगठन “मुक्तेश्वर दल” को भी आर.एस.एस. में विलय करा दिया। उद्देश्य था कि हिन्दुओ का एक ही युवा शक्तिशाली संगठन हो। इस प्रकार संघ की नीतियों, पर हिंदू महासभा व वीर सावरकर के हिन्दुवाद का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था l

इस तरह डॉ॰ हेडगेवार के कुशल निर्देशन, हिन्दू महासभा के सहयोग एवं नागपुर से भेजे गये प्रचारकों के अथक परिश्रम एवं तपस्या के कारण संघ का विस्तार होता गया और 1946 के आते-आते संघ के युवा स्वयंसेवकों की संख्या करीब सात लाख हो गयी। उन प्रचारको की लगन सराहनीय थी। इनके पास महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, बन्दा बैरागी की जीवनी की छोटी छोटी पुस्तके एवं वीर सावरकर द्वारा रचित पुस्तक हिंदुत्व रहती थी।

1938 में वीर सावरकर दूसरी बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये और यह अधिवेशन नागपुर में रखा गया। इस अधिवेशन का उत्तरदायित्व पूरी तरह से आर.एस.एस. के स्वयंसेवको द्वारा उठाया गया। इसका नेतृत्व उनके मुखिया डॉ॰ हेडगेवार ने किया था। उन्होंने उस अवसर पर वीर सावरकर के लिए असीम श्रद्धा जताई। पूरे नागपुर शहर में एक विशाल जलूस निकाला गया, जिसमे आगे-आगे श्री भाऊराव देवरस जो आर.एस.एस. के उच्चतम श्रेणी के स्वयंसेवक थे, वे हाथी पर अपने हाथ में भगवा ध्वज ले कर चल रहे थे।

हैदराबाद (दक्षिण) के मुस्लिम शासक निजाम ने वहाँ के हिन्दुओ का जीना दूभर कर रखा था। यहाँ तक कि कोई हिन्दू मंदिर नहीं बना सकता था और यज्ञ आदि करने पर भी प्रतिबन्ध था। 1938 में आर्य समाज ने निजाम हैदराबाद के जिहादी आदेशो के विरुद्ध आन्दोलन करने की ठानी। गाँधीजी ने आर्य समाज को आन्दोलन ना करने की सलाह दी। वीर सावरकर ने कहा कि अगर आर्य समाज आन्दोलन छेड़ता है तो हिन्दू महासभा उसे पूरा-पूरा समर्थन देगी।

आंदोलन चला, लगभग 25,000 सत्याग्रही देश के विभिन्न भागों से आये। निजाम की पुलिस और वहाँ के रजाकारो द्वारा उन सत्याग्रहियों की जेल में बेदर्दी से पिटाई की जाती थी। बीसियों सत्याग्रहियों की रजाकारों की निर्मम पिटाई से मृत्यु तक हो गयी। इन सत्याग्रहियों में लगभग 12,000 हिन्दू महासभाई थे। वीर सावरकर ने स्वयं पूना जा कर कई जत्थे हैदराबाद भिजवाये। पूना से सबसे बड़ा जत्था हुतात्मा नाथूराम गोडसे के नेतृत्व में हैदराबाद भिजवाया, इनमे हिन्दू महासभा कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त संघ के भी कई स्वयंसेवक थे। इस तरह 1940 तक- जब तक डॉ॰ हेडगेवार जीवित थे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्दू महासभा का युवा संगठन ही माना जाता था।

धर्मवीर डाक्टर मुंजे और वीर सावरकर के सान्निध्य में डाक्टर हेडगेवार ने भारत की गुलामी के कारणों को बडी बारीकी से पहचाना और इसके स्थाई समाधान हेतु संघ कार्य प्रारम्भ किया। इन्होंने सदैव यही बताने का प्रयास किया कि नई चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें नये तरीकों से काम करना पड़ेगा और स्वयं को बदलना होगा,

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापकों में से दो मुख्य व्यक्ति डॉ॰ मुंजे एवं डॉ॰ हेडगेवार हिन्दू महासभाई थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने वीर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिन्दू एवं हिन्दू राष्ट्रवाद की व्याख्या को ही अपना आधार बनाया था, साथ ही वीर सावरकर के मूलमंत्र- अस्पर्श्यता निवारण और हिन्दुओं के सैनिकीकरण आदि सिद्धांत को मान्य किया था l

इसी परिपेक्ष्य में हिन्दू महासभा ने भी उस समय एक प्रस्ताव पास कर अपने कार्यकर्ताओ एवं सदस्यों को निर्देश दिया कि वे अपने बच्चों को संघ की शाखा में भेजें एवं संघ के विस्तार में सहयोग दें। आर.एस.एस. की विस्तार योजना के अनुसार उसके नागपुर कार्यालय से बड़ी संख्या में युवक, दो जोड़ी धोती एवं कुर्ता ले कर संघ शाखाओ की स्थापना हेतु दिल्ली, लाहौर, पेशावर, क्वेटा, मद्रास, गुवाहाटी आदि विभिन्न शहरों में भेजे गये।

दिल्ली में पहली शाखा हिन्दू महासभा भवन, मंदिर मार्ग नयी दिल्ली के प्रांगण में हिन्दू सभाई नेता प्राध्यापक राम सिंह की देख रेख में श्री बसंत राव ओक द्वारा संचालित की गयी। लाहौर में शाखा हिन्दू महासभा के प्रसिद्द नेता डॉ॰ गोकुल चंद नारंग की कोठी में लगायी जाती थी, जिसका संचालन श्री मुले जी एवं धर्मवीर जी (जो महान हिन्दू सभाई नेता देवता स्वरुप भाई परमानन्द जी के दामाद थे) द्वारा किया जाता था। पेशावर में आर.एस.एस. की शाखा सदर बाजार से सटी गली के अंदर हिन्दू महासभा कार्यालय में लगायी जाती थी जिसकी देख रेख श्री मेहर चंद जी खन्ना- तत्कालिक सचिव हिन्दू महासभा करते थे।

वीर सावरकर के बड़े भाई श्री बाबाराव सावरकर ने अपने युवा संघ जिसके उस समय लगभग 8,000 सदस्य थे ने, उस संगठन को आर.एस.एस. में विलय कर दिया। वीर सावरकर के मित्र एवं हजारों ईसाईयों को शुद्धि द्वारा दोबारा हिन्दू धर्म में लाने वाले संत पान्च्लेगाँवकर ने उस समय अपने 5,000 सदस्यों वाले संगठन “मुक्तेश्वर दल” को भी आर.एस.एस. में विलय करा दिया। उद्देश्य था कि हिन्दुओ का एक ही युवा शक्तिशाली संगठन हो। इस प्रकार संघ की नीतियों, पर हिंदू महासभा व वीर सावरकर के हिन्दुवाद का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था l

इस तरह डॉ॰ हेडगेवार के कुशल निर्देशन, हिन्दू महासभा के सहयोग एवं नागपुर से भेजे गये प्रचारकों के अथक परिश्रम एवं तपस्या के कारण संघ का विस्तार होता गया और 1946 के आते-आते संघ के युवा स्वयंसेवकों की संख्या करीब सात लाख हो गयी। उन प्रचारको की लगन सराहनीय थी। इनके पास महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, बन्दा बैरागी की जीवनी की छोटी छोटी पुस्तके एवं वीर सावरकर द्वारा रचित पुस्तक हिंदुत्व रहती थी।

1938 में वीर सावरकर दूसरी बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये और यह अधिवेशन नागपुर में रखा गया। इस अधिवेशन का उत्तरदायित्व पूरी तरह से आर.एस.एस. के स्वयंसेवको द्वारा उठाया गया। इसका नेतृत्व उनके मुखिया डॉ॰ हेडगेवार ने किया था। उन्होंने उस अवसर पर वीर सावरकर के लिए असीम श्रद्धा जताई। पूरे नागपुर शहर में एक विशाल जलूस निकाला गया, जिसमे आगे-आगे श्री भाऊराव देवरस जो आर.एस.एस. के उच्चतम श्रेणी के स्वयंसेवक थे, वे हाथी पर अपने हाथ में भगवा ध्वज ले कर चल रहे थे।

हैदराबाद (दक्षिण) के मुस्लिम शासक निजाम ने वहाँ के हिन्दुओ का जीना दूभर कर रखा था। यहाँ तक कि कोई हिन्दू मंदिर नहीं बना सकता था और यज्ञ आदि करने पर भी प्रतिबन्ध था। 1938 में आर्य समाज ने निजाम हैदराबाद के जिहादी आदेशो के विरुद्ध आन्दोलन करने की ठानी। गाँधीजी ने आर्य समाज को आन्दोलन ना करने की सलाह दी। वीर सावरकर ने कहा कि अगर आर्य समाज आन्दोलन छेड़ता है तो हिन्दू महासभा उसे पूरा-पूरा समर्थन देगी।

आंदोलन चला, लगभग 25,000 सत्याग्रही देश के विभिन्न भागों से आये। निजाम की पुलिस और वहाँ के रजाकारो द्वारा उन सत्याग्रहियों की जेल में बेदर्दी से पिटाई की जाती थी। बीसियों सत्याग्रहियों की रजाकारों की निर्मम पिटाई से मृत्यु तक हो गयी। इन सत्याग्रहियों में लगभग 12,000 हिन्दू महासभाई थे। वीर सावरकर ने स्वयं पूना जा कर कई जत्थे हैदराबाद भिजवाये। पूना से सबसे बड़ा जत्था हुतात्मा नाथूराम गोडसे के नेतृत्व में हैदराबाद भिजवाया, इनमे हिन्दू महासभा कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त संघ के भी कई स्वयंसेवक थे। इस तरह 1940 तक- जब तक डॉ॰ हेडगेवार जीवित थे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्दू महासभा का युवा संगठन ही माना जाता था।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापकों में से दो मुख्य व्यक्ति डॉ॰ मुंजे एवं डॉ॰ हेडगेवार हिन्दू महासभाई थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने वीर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिन्दू एवं हिन्दू राष्ट्रवाद की व्याख्या को ही अपना आधार बनाया था, साथ ही वीर सावरकर के मूलमंत्र- अस्पर्श्यता निवारण और हिन्दुओं के सैनिकीकरण आदि सिद्धांत को मान्य किया था l

इसी परिपेक्ष्य में हिन्दू महासभा ने भी उस समय एक प्रस्ताव पास कर अपने कार्यकर्ताओ एवं सदस्यों को निर्देश दिया कि वे अपने बच्चों को संघ की शाखा में भेजें एवं संघ के विस्तार में सहयोग दें। आर.एस.एस. की विस्तार योजना के अनुसार उसके नागपुर कार्यालय से बड़ी संख्या में युवक, दो जोड़ी धोती एवं कुर्ता ले कर संघ शाखाओ की स्थापना हेतु दिल्ली, लाहौर, पेशावर, क्वेटा, मद्रास, गुवाहाटी आदि विभिन्न शहरों में भेजे गये।

दिल्ली में पहली शाखा हिन्दू महासभा भवन, मंदिर मार्ग नयी दिल्ली के प्रांगण में हिन्दू सभाई नेता प्राध्यापक राम सिंह की देख रेख में श्री बसंत राव ओक द्वारा संचालित की गयी। लाहौर में शाखा हिन्दू महासभा के प्रसिद्द नेता डॉ॰ गोकुल चंद नारंग की कोठी में लगायी जाती थी, जिसका संचालन श्री मुले जी एवं धर्मवीर जी (जो महान हिन्दू सभाई नेता देवता स्वरुप भाई परमानन्द जी के दामाद थे) द्वारा किया जाता था। पेशावर में आर.एस.एस. की शाखा सदर बाजार से सटी गली के अंदर हिन्दू महासभा कार्यालय में लगायी जाती थी जिसकी देख रेख श्री मेहर चंद जी खन्ना- तत्कालिक सचिव हिन्दू महासभा करते थे।

वीर सावरकर के बड़े भाई श्री बाबाराव सावरकर ने अपने युवा संघ जिसके उस समय लगभग 8,000 सदस्य थे ने, उस संगठन को आर.एस.एस. में विलय कर दिया। वीर सावरकर के मित्र एवं हजारों ईसाईयों को शुद्धि द्वारा दोबारा हिन्दू धर्म में लाने वाले संत पान्च्लेगाँवकर ने उस समय अपने 5,000 सदस्यों वाले संगठन “मुक्तेश्वर दल” को भी आर.एस.एस. में विलय करा दिया। उद्देश्य था कि हिन्दुओ का एक ही युवा शक्तिशाली संगठन हो। इस प्रकार संघ की नीतियों, पर हिंदू महासभा व वीर सावरकर के हिन्दुवाद का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था l

इस तरह डॉ॰ हेडगेवार के कुशल निर्देशन, हिन्दू महासभा के सहयोग एवं नागपुर से भेजे गये प्रचारकों के अथक परिश्रम एवं तपस्या के कारण संघ का विस्तार होता गया और 1946 के आते-आते संघ के युवा स्वयंसेवकों की संख्या करीब सात लाख हो गयी। उन प्रचारको की लगन सराहनीय थी। इनके पास महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, बन्दा बैरागी की जीवनी की छोटी छोटी पुस्तके एवं वीर सावरकर द्वारा रचित पुस्तक हिंदुत्व रहती थी।

1938 में वीर सावरकर दूसरी बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये और यह अधिवेशन नागपुर में रखा गया। इस अधिवेशन का उत्तरदायित्व पूरी तरह से आर.एस.एस. के स्वयंसेवको द्वारा उठाया गया। इसका नेतृत्व उनके मुखिया डॉ॰ हेडगेवार ने किया था। उन्होंने उस अवसर पर वीर सावरकर के लिए असीम श्रद्धा जताई। पूरे नागपुर शहर में एक विशाल जलूस निकाला गया, जिसमे आगे-आगे श्री भाऊराव देवरस जो आर.एस.एस. के उच्चतम श्रेणी के स्वयंसेवक थे, वे हाथी पर अपने हाथ में भगवा ध्वज ले कर चल रहे थे।

हैदराबाद (दक्षिण) के मुस्लिम शासक निजाम ने वहाँ के हिन्दुओ का जीना दूभर कर रखा था। यहाँ तक कि कोई हिन्दू मंदिर नहीं बना सकता था और यज्ञ आदि करने पर भी प्रतिबन्ध था। 1938 में आर्य समाज ने निजाम हैदराबाद के जिहादी आदेशो के विरुद्ध आन्दोलन करने की ठानी। गाँधीजी ने आर्य समाज को आन्दोलन ना करने की सलाह दी। वीर सावरकर ने कहा कि अगर आर्य समाज आन्दोलन छेड़ता है तो हिन्दू महासभा उसे पूरा-पूरा समर्थन देगी।

आंदोलन चला, लगभग 25,000 सत्याग्रही देश के विभिन्न भागों से आये। निजाम की पुलिस और वहाँ के रजाकारो द्वारा उन सत्याग्रहियों की जेल में बेदर्दी से पिटाई की जाती थी। बीसियों सत्याग्रहियों की रजाकारों की निर्मम पिटाई से मृत्यु तक हो गयी। इन सत्याग्रहियों में लगभग 12,000 हिन्दू महासभाई थे। वीर सावरकर ने स्वयं पूना जा कर कई जत्थे हैदराबाद भिजवाये। पूना से सबसे बड़ा जत्था हुतात्मा नाथूराम गोडसे के नेतृत्व में हैदराबाद भिजवाया, इनमे हिन्दू महासभा कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त संघ के भी कई स्वयंसेवक थे। इस तरह 1940 तक- जब तक डॉ॰ हेडगेवार जीवित थे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्दू महासभा का युवा संगठन ही माना जाता था।

धर्मवीर डाक्टर मुंजे और वीर सावरकर के सान्निध्य में डाक्टर हेडगेवार ने भारत की गुलामी के कारणों को बडी बारीकी से पहचाना और इसके स्थाई समाधान हेतु संघ कार्य प्रारम्भ किया। इन्होंने सदैव यही बताने का प्रयास किया कि नई चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें नये तरीकों से काम करना पड़ेगा और स्वयं को बदलना होगा, अब ये पुराने तरीके काम नहीं आएंगे।[2] डॉ॰साहब १९२५ से १९४० तक, यानि मृत्यु पर्यन्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक रहे। २१ जून,१९४० को इनका नागपुर में निधन हुआ। इनकी समाधि रेशम बाग नागपुर में स्थित है, जहाँ इनका अंत्येष्टि संस्कार हुआ था।